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अचेतन तत्वों का जो भी उपयोग करता है, जो भी उपभोग करता स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता । ' है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है।'
महावीर कहते हैं, सभी उपभोग बांधता नहीं; क्योंकि ध्यान भी करोगे तो भोजन करना होगा। तो ध्यान के लिए भी शरीर जरूरी होगा । वेश्या के घर जाना है तो भी शरीर से ही चलकर जाओगे और मंदिर जाना है तो भी शरीर से ही चलकर जाओगे। किसी | की हत्या करनी हो तो भी ऊर्जा चाहिए, भोजन से मिलेगी; और किसी की सेवा करनी हो तो भी ऊर्जा चाहिए, भोजन से ही मिलेगी। भोजन छोड़ देने का सवाल नहीं है; भोजन का सम्यक उपयोग कर लेने का सवाल है।
श्रीमद्भागवत में एक वचन है: स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः ! संत पुरुष तीर्थों को पवित्र करते हैं । तीर्थों के कारण कोई पवित्र नहीं होता; संत पुरुषों के कारण तीर्थ बन जाते हैं। जहां संत पुरुष बैठता है वहीं तीर्थ बन जाता है। जहां तीर्थंकर चलते हैं। वहीं तीर्थ बन जाते हैं।
तो महावीर कहते हैं, 'सम्यक दृष्टि मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है।' वह इसीलिए जीता है। ताकि जीवन के पार जा सके। वह इसीलिए भोजन करता है ताकि भगवत्ता को पा सके। वह इसीलिए जल पीता है, ताकि शरीर तृप्त हो, शांत हो, तो अंतर्गमन हो सके। उसकी दृष्टि हर घड़ी उस भीतर के सत्य पर लगी रहती है। वह उसी के लिए सारे जीवन को उपकरण बना लेता है।
गंगा की खोज मत करो। तुम गंगा कभी न पहुंच पाओगे । तुम दृष्टिको, सम्यकत्व को उपलब्ध हो जाओ - गंगा तुम्हारी खोज करती चली जाएगी। नदी, नाला कोई भी तुम्हारे पास से गुजर जायेगा, गंगा जैसा पवित्र हो जायेगा । वास्तविक मूल्य, आत्यंतिक मूल्य तुम्हारे चैतन्य का है।
'कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता।' यह वचन सुनना ! यह गीता में कहा गया होता तो अड़चन न होती; यह महावीर ने कहा है ।
इसको बहुत गौर से, होश से सुनना ।
'कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई न सेवन करते हुए भी विषयों का सेवन करता है। जैसे कोई पुरुष विवाह आदि कार्यों में लगा रहने पर भी उस कार्य का
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मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि
यह गीता में तो बिलकुल ठीक था। तो कृष्ण की दृष्टि में साफ था। लेकिन जैनों ने महावीर की दृष्टि को ऐसा लीपा-पोता है कि महावीर के ही वचन पराये मालूम पड़ते हैं।
महावीर यह कह रहे हैं कि कोई तो ऐसे हैं, जागे होने के कारण, सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करते; भोजन करते हुए भी उपवासे हैं; ठेठ संसार में खड़े हुए भी संसार के बाहर हैं। और कोई ऐसे भी हैं कि न सेवन करते हुए भी सेवन करते हैं। उपवास किए हैं, लेकिन भोजन की कल्पना, भोजन की वासना...! ब्रह्मचर्य का व्रत लिए हैं, लेकिन कामवासना की लहरें...! हिमालय पर बैठ गये हैं जाकर, लेकिन संसार की पुकार उन्हें अभी भी सुनायी पड़ती है।
तो असली सवाल बाहर से भाग जाने का नहीं है-भीतर से जाग जाने का है।
फिर तुम भोग कर भी त्यागी हो सकते हो। और अगर वैसा न हुआ तो तुम त्याग कर लोगे और भोगी ही रहोगे । गो मैं रहा रहने-सितमहा-ए-रोजगार लेकिन तेरे खयाल से गाफिल नहीं रहा।
रहा दुनिया की भीड़ में, रहा बाजार में, रहा उलझा संसार में...।
गो मैं रहा रहने-सितमहा-ए-रोजगार
- काम-धंधों में उलझा हुआ; 'लेकिन तेरे खयाल से गाफिल नहीं रहा!' बस इतना ही कह सको तो काफी है। स्मरण बना रहा, सुरति सधी रही, ध्यान का धागा हाथ में रहा – फिर रहो तुम बाजार में, तुम कमलिनी के पत्र की भांति सरोवर में पानी के बीच रहते हुए भी पानी से अस्पर्शित रहोगे। महावीर कहते हैं, जैसे कोई आदमी विवाह इत्यादि का आयोजन करता है... मुनीम, मालिक नहीं, तो बड़ी दौड़-धूप करता है, इंतजाम करता है: बैंडबाजे लाओ, भोजन-पत्तल सजाओ; लेकिन चूंकि वह मालिक नहीं है, इसलिए परेशान नहीं है। रात घर जाकर सो जाता है मजे से । कोई याद भी नहीं आती । काम था, कर दिया। कर्ता तो वह नहीं है। लेकिन मालिक चाहे दौड़-धूप भी न कर रहा हो, सिंहासन पर बैठा हो, लेकिन रात सो न पायेगा। उसकी लड़की का विवाह हो रहा है। बड़ी चिंताएं पकड़ेंगी। चिंताएं विवाह के कारण नहीं पकड़तीं,
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