________________
हला सूत्रः 'सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं: अत्यंत अपरिचित की खोज में चला है। निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, अकसर लोग सत्य की खोज नहीं करते, शास्त्र को पकड़कर
उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना।' | बैठ जाते हैं। क्योंकि शास्त्र में कहीं जाना नहीं-शब्द का खेल एक-एक अंग को बहुत ध्यान से समझना जरूरी है। है; बुद्धि की खुजलाहट है। तोते की तरह रट लेंगे, याद कर लेंगे 'निःशंका...'
और सोच लेंगे, पहुंच गये। जैसे कोई हिमालय के नक्शे को सम्यक दर्शन का पहला अंग, पहला चरण : अभय। मन में लेकर बैठ जाये, छाती से लगाकर रखे और सोचे कि पहुंच गये; कोई शंका न हो, कोई भय न हो।
लेकिन हिलेरी को या तेनसिंग को जब गौरीशंकर चढ़ना होता है साहस! क्योंकि जो साहसी हैं वे ही केवल सत्य की खोज पर | तो यह छाती पर नक्शे लगाने जैसा नहीं है, यह जीवन को दांव जा सकेंगे। सत्य की खोज में, समझ से भी ज्यादा मूल्य साहस पर लगाना है। साहस चाहिये। मृत्यु भी घट सकती है। जो है का है। साहस का अर्थ होता है। जहां कभी न गये हों, जिसे वह भी खो सकता है। और उसका तो कोई पता नहीं जो मिलने कभी न जाना हो, अपरिचित, अनजान, अज्ञेय-उसमें प्रवेश। को है।
सत्य है अपरिचित। उसे अब तक जाना नहीं। जो जाना-माना तो जिसके पास जुआरी जैसा दिल है कि जो है उसे दांव पर है, उससे भय मिट जाता है; उससे हम परिचित हो जाते हैं। | लगा दे, उसके लिये जो नहीं है, वही केवल सत्य की खोज में जिस रास्ते पर बहुत बार आये-गये, उस रास्ते पर फिर डर नहीं सफल हो पाता है। दुकानदार सफल नहीं हो पाते। लगता। पहली बार, नये रास्ते पर, भय प्रतीत होता है : पता हिसाबी-किताबी सफल नहीं हो पाते। इसलिये महावीर सम्यक नहीं, रास्ता कहां ले जाये, और पता नहीं रास्ते पर क्या घटे! | दर्शन का पहला सूत्र कहते हैं : निःशंका। मन में जरा भी भय न
और सत्य का रास्ता तो तुम कभी चले नहीं। जिस रास्ते पर तुम हो, तो ही जा सकोगे। अभय का, वीरों का मार्ग है-कायरों का चले हो, वह है संसार का रास्ता। साहस के अभाव के कारण ही नहीं, भगोड़ों का नहीं। हम बार-बार संसार के रास्ते पर ही परिभ्रमण करते रहते हैं। अब यहां तो उलटी हालत घटी है। जैन धर्म को स्वीकार
मनस्विद कहते हैं कि आदमी अपरिचित सुख से भी डरता है; करनेवाले, जरा भी साहसी नहीं हैं। साहस से उनका कोई संबंध परिचित दुख को भी पकड़े रखता है, कम से कम परिचित तो है! नहीं रहा है और उन्होंने अपनी कायरता को अच्छे-अच्छे शब्दों कम से कम जाना-माना, अपना तो है! इतने दिनों का नाता तो | में ढांक लिया है...अहिंसा! अकसर मुझे ऐसा दिखाई पड़ा कि है! अपरिचित सुख से भी भय लगता है, कि पता नहीं क्या हो, जो आदमी डरता है कि कोई उसकी हिंसा न कर दे, वह अहिंसक क्या घटे! और जो व्यक्ति सत्य की खोज में चला है, वह तो हो जाता है। इस भय से कि कहीं दूसरा मेरी हानि न कर दे, वह
668
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org