________________
664
जिन सूत्र भाग: 1
कहता है हानि किसी को पहुंचाना ही नहीं। वह स्वयं भी हानि नहीं पहुंचाता, क्योंकि हानि पहुंचाने में हानि उठाने का खतरा भी जुड़ा है। वह किसी को मारता भी नहीं है, क्योंकि मारने जाने में अपने मारे जाने की भी संभावना खुलती है। वह अहिंसा की बात करता है।
यहां खयाल रखना, अहिंसा वीरों का वेश है— उनका नहीं जो अभी डर रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं, घबड़ा रहे हैं। उनकी अहिंसा किसी काम की नहीं है। वह तो केवल लफ्फाजी है। वह तो ऊपर से थोप लिया आवरण है । वह तो अपने को छिपा लेना है, सुरक्षा है।
महावीर कहते हैं, निःशंका पहला चरण है। और जो संसार से ही घबड़ा गये हैं, वह सत्य की यात्रा पर क्या खाक निकल सकेंगे ! जहां डरने जैसा कुछ भी न था, क्योंकि जहां खोने जैसा ही कुछ न था, वहां जो डर गये, वे सत्य की यात्रा पर कैसे निकल सकेंगे? इस भेद को खयाल में लो।
सत्य की खोज के नाम पर तुम कहीं संसार से डरकर तो नहीं बैठ गये हो । जैन मुनियों को मैं देखता हूं तो ऐसा ही प्रतीत होता है। अधिक मौकों पर वे सत्य की खोज में नहीं गये, सिर्फ संसार की खोज से रुक गये हैं। संसार की खोज से रुक जाना अनिवार्य रूप से सत्य की खोज नहीं है। हां, सत्य का खोजी संसार की खोज से मुक्त हो जाता है, यह जरूर सही है । लेकिन संसार की खोज छोड़ देनेवाला सत्य की खोज पर निकल जाता है, यह आवश्यक नहीं है।
।
ऐसा समझो, एक आदमी गौरीशंकर चढ़ने जाता है— गौरीशंकर चढ़ने जायेगा तो पूना छूटेगा। लेकिन पूना छोड़कर कोई बैठ जाये, इससे गौरीशंकर नहीं पहुंच जायेगा पूना छोड़कर बैठने के हजार उपाय हैं : पूना की ठीक सीमा पर बाहर बैठा रहे; जहां पूना का कारपोरेशन का क्षेत्र शुरू होता है, बस उसकी सीमा पर बैठा रहे। लेकिन इससे कोई गौरीशंकर पर नहीं पहुंच जायेगा। हां, गौरीशंकर की यात्रा पर जो गया है वह पूना से जरूर मुक्त हो जायेगा; उसे पूना छोड़ना ही पड़ेगा।
महावीर ने संसार छोड़ा, सत्य की यात्रा पर गये, इसलिये । बड़े साहस का कदम उठाया। लेकिन जैन मुनि !... वह संसार से डरकर बैठ गया है। संसार से जो डर गया वह सत्य में तो जायेगा ही कैसे ? परिचित से जो डर रहा है वह अपरिचित में तो
Jain Education International
जायेगा कैसे ? दिखाई पड़नेवाले से जो डर रहा है वह अदृश्य की यात्रा पर तो कैसे कदम उठायेगा ? जहां भीड़ है, संगी-साथी हैं, परिवार है, मित्र हैं, उस रास्ते पर, राजपथ पर चलने से डर रहा है, तो बीहड़ वनों में और पगडंडियों पर उतरेगा ? सत्य की खोज पर तो जाना पड़ता है अकेले। वहां तो कोई साथी न होगा, कोई संगी न होगा। वहां तो शास्त्र भी छोड़ देने होंगे, शब्द भी छोड़ देने होंगे। वहां तो समाज से जो लिया है वह सब छोड़कर जाना होगा। भाषा भी छोड़ देनी होगी। इसलिये महावीर ने अपने संन्यासी को मुनि कहा था, कि वह भाषा का त्याग कर दे। क्योंकि भाषा तो समाज की ही देन है। गौर से देखें तो भाषा ही समाज है । जब तुम बोलते हो तभी समाज बनता है; जब तुम नहीं बोलते तो समाज नहीं बनता। तुम अगर चुप खड़े हो तो तुम अकेले हो; बोले, कि जुड़े।
थोड़ी देर को सोचो! एक गांव तय कर ले कि अब वाणी का त्याग करते हैं, पूरा गांव चुप हो जाये, तो उस गांव में अकेले अकेले लोग रह जायेंगे। उस गांव में समाज न रहेगा, क्योंकि सेतु गिर जायेंगे। दो आदमियों के बीच जो सेतु हैं वे तो शब्द हैं। अगर सारा गांव तय कर ले कि अब हम चुप होंगे तो गांव मिट जायेगा; व्यक्ति रह जायेंगे, समूह न रह जाएगा। समूह तो जीता है भाषा पर ।
महावीर ने कहा कि तुम भाषा भी छोड़ोगे तो ही जा सकोगे सत्य तक। हां, जब सत्य को जान लो, तब चाहे भाषा का उपयोग करके लोगों को समझा देना। लेकिन जानते समय छोड़कर जाना होगा, मौन होना होगा, शून्य होना होगा। और जो भी तुम्हारे पास है उस सबको उसके लिए दांव पर लगा देना होगा, जिसको न तुम जानते, न कोई आश्वासन है जिसका कि पक्का है, मिलेगा। क्योंकि कोई दूसरा तुम्हें आश्वासन नहीं दे सकता। अगर मुझे कुछ मिला तो मैं लाख सिर पटकूं तो भी तुम्हें समझा नहीं सकता कि तुम्हें भी मिलेगा। कोई उपाय नहीं है।
सत्य की अनुभूति आंतरिक है। वस्तुतः नहीं है सत्य, कि तुम्हें दिखा दूं हाथ में रखकर, कि यह रहा सत्य, ताकि तुम्हें भरोसा आ जाये। तुम छूकर तो न देख सकोगे, आंख से न देख सकोगे, कान से सुना न जा सकेगा। भरोसा करना होगा। उसी भरोसे को महावीर कहते हैं : निःशंका, ट्रस्ट । एक गहन श्रद्धा की जरूरत होगी एक ऐसी श्रद्धा की, जिसमें जरा भी संदेह न हो, क्योंकि
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org