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जिन सूत्र भागः ।
जिन सूत्र भाग: 11
चिंताएं पकड़ती हैं-मेरी लड़की! जहां 'मेरा' है, ममत्व है, पैसे से ऐसा क्या डर? पैसे में ऐसा क्या बल? और अगर पैसे वहीं संसार है। जहां 'मेरा' नहीं, ममत्व नहीं, वहीं संसार खो में इतना बल है कि संतों को आंख बंद करनी पड़ती है तो फिर गया। तो फिर तुम कर्ता-भाव से मुक्त होकर जो भी करो उसका बेचारे ये संसारी अगर पैसे के बल से दबे हैं तो क्या आश्चर्य! कोई बंध नहीं है।
| किसी की आंख एकदम फैल के दोगुनी हो जाती है और किसी __'इसी तरह काम-भोग न समभाव उपस्थित करते हैं और न की बंद हो जाती है! विकृति...।'
___ मैं एक सज्जन को जानता था। उनको अगर दूसरे का भी नोट ये वचन तुम सोचना—जैसे किसी महातांत्रिक ने कहे हों! हाथ में लग जाये तो वह उसको ऐसा पुचकार के छूते थे, वैसा 'इसी तरह काम-भोग न समभाव उपस्थित करते हैं और न | कलाकार मैंने नहीं देखा फिर दुबारा। बहुत लोग देखे।...मगर विकृति या विषमता। जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, | दूसरे के नोट को भी पुचकार के छूते थे। सम्मान तो होना ही वह उनमें विकृति को प्राप्त होता है।'
चाहिए था। उसको उलट-पलटकर देखते, उसको ऐसे छूते जैसे न रखना द्वेष, न रखना ममत्व। जो हो, चुपचाप अपने बोध | प्रेयसी हो! को सम्हाले, होने देना। जो हो स्थिति, स्मरण न खोये, । ___ एक तरफ ये हैं कि पैसे को देखते से उनकी जीभ से एकदम आत्मस्मरण न खोये। बस, इतना काफी है।
लार टपकने लगेगी और दूसरी तरफ लोग हैं कि आंख बंद कर तो महावीर बड़ी हिम्मत का वचन कह रहे हैं। वे कह रहे हैं लेंगे। लेकिन फर्क क्या हुआ? पैसे ने दोनों पर प्रभाव रखा। काम-भोग भी न तो बांधते हैं, न उन्हें छोड़ने से कोई छूटता है। पैसे ने दोनों से कुछ करवा लिया। न तो काम-भोग से कोई बंधन निर्मित होता है और न काम-भोग महावीर कह रहे हैं कि पैसे में ऐसा कुछ भी नहीं है—न तो से कोई मुक्ति निर्मित होती है। हां, काम-भोग के प्रति द्वेष और लार टपकाने योग्य कुछ है और न आंख बंद करने योग्य कुछ ममत्व का भाव, उससे ही रज्जु निर्मित होती है जो बांधती है। तो है। जिस दिन न ममत्व, न द्वेष, दोनों नहीं रह जाते, न राग न तुम कोई ममत्व का भाव मत रखना और द्वेष मत्त रखना। विराग—उसी दिन वीतरागता उपलब्ध होती है।
अब जिनको तुम संसारी कहते हो, जिनको तुम श्रावक कहते ___ 'वीतराग' महावीर का बड़ा बहुमूल्य शब्द है। न राग न हो, इनका ममत्व है काम-भोग में। तुम अपने संन्यासी को। विराग, न पकड़ना न छोड़ना, कोई चुनाव नहीं, न इस तरफ न पूछो, उसका क्या है? उसका द्वेष है।
उस तरफ, न घृणा न मोह! अपने में थिर हो जाना, अपने में रम अगर तुम्हें कोई नग्न तस्वीरों वाली किताब मिल जाये तो तुम | जाना, कि बाहर से कोई भी घटना घटे, तुम्हारे भीतर पक्ष-विपक्ष छिपाकर उसे देख लोगे, या गीता का कवर चढ़ा दोगे ऊपर से | में कोई भी विचार न उठे, भाव न उठे-ऐसी वीतराग दशा ही
और देख लोगे। बच न सकोगे। लेकिन उसी किताब को अगर | मोक्ष का द्वार है। महावीर इस दृष्टि को सर्वाधिक मूल्यवान तुम अपने मुनि महाराज के पास जाकर खोल दो, वह छलांग कहते हैं। लगाकर खड़े हो जायेंगे, जैसे तुम सांप-बिच्छू की पिटारी ले तूफान से उलझ गए लेकर खुदा का नाम आये। वह तुम पर चीखने-चिल्लाने लगेंगे कि यह तमने क्या आखिर निजात पा ही गये नाखुदा से हम किया! भ्रष्ट कर दिया!
-मांझी से छुटकारा पा लिया खुदा का नाम लेकर! लेकिन तुम्हारा ममत्व है, उनका द्वेष है। महावीर कहते हैं, दोनों ही महावीर ने खुदा से भी छुटकारा पा लिया है। नाखुदा से तो खतरनाक हैं। कोई भी भाव बांध लेगा, फिर चाहे पक्ष का हो छुटकारा पा ही लिया। किसी के पीछे तो वह चलते ही नहीं, चाहे विपक्ष का हो। तुम संसार में निर्लिप्त, ऐसे जीना कि जैसे कोई मांझी नहीं है। लेकिन खुदा से, परमात्मा से भी छुटकारा पा तुम्हारा कोई भाव नहीं है। जो हो रहा है, ठीक है। न तुम पकड़ने लिया। उन्होंने तो सीधा धर्म का विज्ञान निरूपित किया कि दृष्टि को उत्सुक हो, न तुम छोड़ने को उत्सुक हो।
| की शुद्धि ही तुम्हारी मार्गद्रष्टा है; वही सदगुरु है। विनोबा के पास कोई पैसे ले जाये तो वे आंख बंद कर लेते हैं। दृष्टि थिर हो जाये, अनुद्वेग सम्हल जाये, कोई उद्वेग न उठे।
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