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जिन सत्र भाग: 1
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ही भोग उचित है। अपने को ही पीयो, अपने को ही भोगो। कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से
हम साधारणतः जीवन में दूसरे को भोगने का आयोजन करते । मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती। हैं। 'पर' का हम सेवन करना चाहते हैं।
लेकिन दिल है कि वह गरीब का गरीब, दीन का दीन, भिखारी महावीर कहते हैं, 'पर' का सेवन करते-करते तो तुम संसार का भिखारी, खंडहर का खंडहर, वहां कभी महल बन नहीं में भटक गये हो। अब तुम अपना ही सेवन करो। तुम अकेले पाता-बनेगा भी नहीं। क्योंकि बाहर की तुम सारी दुनियाएं अपने एकांत को ही भोगो। तुम अपने स्वभाव में डूबो। तुम्हारे | लूटकर ले आओ, तो भी कुछ न होगा, जब तक कि भीतर की भीतर जो छिपा है, इसके साथ नाचो, इसी को संगी-साथी दुनिया न लूटो। और भीतर की दुनिया कुछ ऐसी है-ऐसी बनाओ! भीतर होने दो रास!
अनंत कि भोगो और भोग के नये द्वार खुलते चले जाते हैं; रस तुमने अपने साथ संबंध ही नहीं जोड़े। तुम अपने से कभी लो, और नई रसधार बहती है। रसधार बड़ी होती जाती है, बड़ी आलिंगन नहीं किए। तुमने अपने को कभी चूमा नहीं, अपना | होती जाती है। और कतरा एक दिन दरिया बन जाता है। बूंद कभी भोजन नहीं किया। अपना सेवन करो।
एक दिन सागर हो जाती है। सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया
तुम जब तक प्रगट न हो जाओगे अपनी परिपूर्ण महिमा में, तब खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ।
| तक दुखी रहोगे, घाव रहेगा। गीत गाना ही पड़ेगा। वह हमारी और जब तक बूंद सागर न हो जाये, तब तक मिट्टी है। और | नियति है। अभिव्यंजित होना ही होगा, गूंजना ही होगा-एक जब तक हृदय में छिपा हुआ गीत प्रगट न हो जाये, तब तक वह परम संगीत से! एक दिव्य विभा से मंडित होना ही होगा! हृदय का घाव है।
अपनी महिमा को छिपाओ मत, भोगो! सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया
हिंदू शास्त्रों में बड़े प्रसिद्ध वचन हैं : खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ।
आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः। हमारे जीवन में जो इतनी पीड़ा है, यह पीड़ा सिर्फ इसीलिए है सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृति। कि हमारे भीतर जो पड़ा है, छिपा है, वह प्रगट नहीं हो पाया। जो स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः। गीत दबा पड़ा है हमारे प्राणों में, वह गाया नहीं गया। जो नाच आहार शुद्धि से सत्व शुद्धि; सत्व शुद्धि से स्मृति का लाभ; हम छिपाये चल रहे हैं, वह नाचा नहीं गया। जो भोग हमारा | और स्मृति-लाभ से ग्रंथियों का खुलना; और समस्त उलझनों स्वभाव है, वह भोगा नहीं गया। हमने अपने को अभिव्यंजना का अंत, समाप्ति, विप्रमोक्ष।। नहीं दी है। हमारा सितार ऐसा ही पड़ा है, उस पर हमने साधारणतः लोग यही अर्थ करते हैं, आहार शुद्धि से सत्व अंगुलियां नहीं नचायीं। वह सितार ऐसे ही धूल जमा पड़ा है। शुद्धि। यही अर्थ करते हैं : शुद्ध आहार। ब्राह्मण के हाथ का उससे विराट संगीत पैदा हो सकता था, उस तरफ हमने कोई | बनाया हुआ आहार। इसका गहरा अर्थ खयाल में नहीं आता : ध्यान ही न दिया। हमारी नजरें दूसरे को तलाशती रहीं। हम | शुद्ध का आहार! परम शुद्ध का आहार! सत्व का आहार! वह दूसरे के संगीत में डूबने को आतुर रहे-और अपना घर भूल जो तुम्हारे भीतर छिपा है, उसका आहार! गये, अपना संगीत भूल गये। हमने और सब भोगा और हाथ | महावीर वर्षों तक उपवास किए, महीनों उपवास किए, दिनों सदा खाली पाए, और हमने उसे न भोगा जो हमारा था और जिसे उपवास किए! लेकिन उन्होंने अपने इस उपवास को उपवास भोगने से जीवन भर जाता।
कहा, निराहार न कहा; अनशन न कहा, उपवास कहा। कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से उपवास का अर्थ है: अपने पास होते जाना; अपने निकट होते मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती।
जाना। जो उपनिषद का अर्थ है, वही उपवास का अर्थ है। अपने कितनी बार नहीं तुमने दोनों दुनियाओं को लूटकर अपने हृदय । पास, अपने पास, और पास होते चले जाना! निराहार न कहा को भर देने की चेष्टा की है!
अपने उपवास को, क्योंकि वह गलत जोर होता। भोजन नहीं
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