Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 615
________________ भली आकांक्षा जाहिर की थी। गालिब ने बड़ा अजीब-सा उत्तर दिया। आकाश की तरफ देखा और कहा, 'खुदा बड़ा है। कविता से खुदा का क्या लेना-देना?' कहा, खुदा बड़ा है उस आदमी ने भी कहा, 'यह तो निश्चित ही है कि खुदा बड़ा है। लेकिन इससे मेरे प्रश्न का क्या संबंध है?' उन्होंने कहा, 'थोड़ा ठहरो । खुदा बड़ा है, यह तुम मानते हो ?' उसने कहा, 'निश्चित मानता हूं।' 'लेकिन खुदा को समझते हो ?' वह आदमी बेचैन हुआ । उसने कहा कि आप इतने उदास क्यों हो गये ? आपकी आंखें गीली क्यों हो आयीं ? मैंने कुछ गलत पूछा? मैंने आपको कोई चोट पहुंचायी ? बुद्ध ने कहा कि नहीं, यह सोचकर ही मुझे दया आती है कि तुम दे का सोच रहे हो, लेकिन तुम्हारे पास है नहीं । तुम कहते हो, 'सारी मनुष्यता की सेवा करनी है मुझे, कैसे यह जीवन समझ में तो कुछ भी नहीं आता। तो गालिब ने कहा, 'ऐसी ही अर्पित कर दूं !' लेकिन जीवन कहां है? तुम्हें मैं देखता हूं तो मेरी कविताएं हैं। मैं ही कहां समझता हूं!' खाली हाथ हो तुम ! राख ही राख है भीतर, जीवन कहां है? तुम दोगे क्या ? देने के पहले होना चाहिए। चूंकि हमारे पास नहीं है, इसलिए हम जोड़ते हैं। जोड़कर सोचते हैं कि हो जायेगा ।. जिनके पास है वे बांटते हैं। क्योंकि बांटकर उनको लगता है कि बढ़ता है। समझ छोटे की होती है, विराट की नहीं। हमारी छोटी समझ है – कंजूस की, कृपण की समझ है। तो हम कृत्य की भाषा जानते हैं केवल; सहज की भाषा हमें पता नहीं। हम तो कर-करके मुश्किल से कर पाते हैं, तो हम यह कैसे मानें कि कुछ अपने-आप होता है। हम तो कर-करके भी नहीं कर पाते हैं और हार जाते हैं, विफल हो जाते हैं। जोड़-जोड़कर नहीं जुटा पाते तो हम यह कैसे मानें कि कोई लुटा-लुटाकर, और अपनी संपदा को बढ़ा लेता होगा ? हम तो तिजोड़ियां बांध-बांधकर आखिर में पाते हैं राख हाथ में रह गयी। जोड़-जोड़ के भी कुछ नहीं जुड़ता हो, जिसने एक ही गणित जाना हो, वह यह कैसे मानेगा कि बांटने से बढ़ सकता है, पागल हुए हो ? होश की बातें करो, वह कहेगा। यहां हार गए जीत-जीतकर, तुम कहते हो हार कर जीत हो जाती है ! लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, ऐसा है। जोड़-जोड़कर नहीं जुड़ता, इससे सिद्ध होता है कि विपरीत शायद सही हो। क्योंकि जोड़-जोड़कर तो कोई कभी नहीं जोड़ पाया। तो एक बात तो तय हो गयी कि जोड़ने से नहीं जुड़ता है। अब तुम जरा दूसरा प्रयोग करके देख लो कि बांटने से बढ़ता है। लेकिन बांटोगे तो तभी जब होगा । तीर्थंकर का अर्थ है : जो है; जिसके पास है। बुद्ध के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि ऐसा मन होता है कि 'मनुष्यता कि सेवा में सब कुछ लगा दूं। आपका आशीर्वाद चाहिए !' कहते हैं, बुद्ध की आंखें गीली हो गयीं, उनमें आंसू झलक आए। और बुद्ध ने उस आदमी की तरफ ऐसी करुणा से देखा कि वह आदमी भी विचलित हुआ । बुद्ध के शिष्य भी थोड़े घबड़ाए कि उसने कुछ ऐसी बात तो कही नहीं, Jain Education International जीवन का ऋत: भाव, प्रेम, भक्ति किसी बगीचे के माली से पूछो, वृक्षों की कांट-छांट करता रहता है तो वृक्ष घने होते जाते हैं। कलम करता है तो वृक्ष सघन होते हैं, बढ़ते हैं। एक पत्ता काटो तो चार पत्ते निकल आते हैं। एक शाखा काटो तो दो शाखाएं पैदा हो जाती हैं। माली से पूछो जीवन का राज ! ! ऐसे ही तुम्हारे अंतर्जीवन का वृक्ष भी है। उसे बांटो तो कलम होती है। उसे सम्हालकर रख लो, डर के कारण छिपाकर रख लो, सब तरफ से ढांककर रख लो - मर जाता है पौधा जीवन का। ऐसे ही तो जीवन के पौधे कुम्हला गये हैं। छोड़ो खुली हवा में ले जाने दो सुगंध को हवाओं को छोड़ो खुले आकाश में! खेलने दो मेघों को होने दो मेघ-मल्हार ! नाचने दो तूफानों और आंधियों को वृक्ष के आसपास ! बढ़ने दो वृक्ष को ! खुलने दो, फैलने ! यह बढ़ेगा, खूब बढ़ेगा! ऊपर भी, भीतर भी । ऊंचाइयों में भी बढ़ेगा और गहराइयों में भी बढ़ेगा। जितना वृक्ष ऊपर जाता है उतनी ही जड़ें नीचे गहरी चली जाती हैं। लेकिन हमने अभी कृपण काही गणित जाना है। हमने धनी का गणित जाना ही नहीं ! इसलिए जब हम तीर्थंकरों के संबंध में भी पूछते हैं तो हम अपने ही हिसाब से पूछते हैं। हम कहते हैं कि जब पुण्य भी बांध लेता, तो तीर्थंकर के करुणापूर्ण कृत्य उन्हें नहीं बांधते ? तीर्थंकर का अर्थ ही है कि जो पाप और पुण्य के पार हो गया। तीर्थंकर का अर्थ ही है जो कृत्य के पार हो गया और सहज में प्रवेश कर गया। For Private & Personal Use Only 605 www.jainelibrary.org

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