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जीवन का ऋतः भाव, प्रेम, भक्ति
उस युवती ने कहा, कह तो सफेंगी, मगर इतनी अकड़ से नहीं | निश्चेष्ट हो जाता है, सारी चेष्टा छोड़ देता है, जीवन के ऊपर जितनी अकड़ से तुम कह रही हो। क्योंकि मैं जानती हूं, यह झूठ आरोपण करने का कोई प्रयास नहीं करता। जीवन जहां ले जाये है। तो कह तो सकूँगी अगर कहना ही पड़ेगा तो कह सकूगी, उसकी सहजता के साथ जो बहने को तत्पर है, वही तीर्थंकर है। लेकिन इतनी अकड़ से नहीं जितनी अकड़ से तुम कह रही हो। तो न तो तीर्थंकर को पाप लगता, न पुण्य लगता। तीर्थंकर को
थोड़ी सचाई की तरफ झुका हुआ युग है। तो जो झूठ कर्म-बंध नहीं होता। जहां-जहां था वहां से टूट गया है।
लेकिन इस संदर्भ में एक बात खयाल ले लेनी चाहिए, जैन तो शिक्षकों से मैंने बहुत बार कहा कि तुम जब भी यह सवाल शास्त्र बड़ी बहुमूल्य बात कहते हैं। वे कहते हैं, तीर्थंकर को तो उठाते हो कि विद्यार्थियों का आदर खो गया है, तब तुम्हें असल | कर्म-बंध नहीं होता, लेकिन आदमी तीर्थंकर कर्म-बंध के कारण में दूसरा सवाल उठाना चाहिए-बुनियादी सवाल-कि तुम होता है। सभी लोग तीर्थंकर नहीं होते। सभी परम ज्ञान को कहीं ऐसा तो नहीं कि गुरु नहीं रहे हो? क्योंकि गुरु हो तो आदर | उपलब्ध व्यक्ति भी तीर्थंकर नहीं होते। 'केवल ज्ञान' को तो होता ही है—होना ही चाहिए; जैसे वर्षा हो तो वृक्ष हरे हो जायें। करोड़ों लोग उपलब्ध होते हैं, लेकिन तीर्थंकर तो कभी कोई अब वृक्ष अगर सूखने लगे और बादल शिकायत करें कि यह | एकाध होता है। तो फिर इतने लोग जो परम-ज्ञान को उपलब्ध वृक्षों को क्या हो रहा है, वर्षा आ गयी है और वृक्ष हरे नहीं हो होते हैं और परम सत्य में खो जाते हैं, सभी तीर्थंकर क्यों नहीं रहे! तो हम यही कहेंगे कि तुम बरसे कहां? तुम बरसते तो वृक्षों होते? तो कारण तो होना चाहिए। का हरा हो जाना बिलकुल सहज था। यह अपने से होता है। महावीर जब ज्ञान को उपलब्ध हुए तो और भी बहुत लोग ज्ञान
गुरु, गुरु नहीं है। आकांक्षा कर रहा है गुरु को जैसा सम्मान | को उपलब्ध थे, लेकिन सभी तीर्थंकर न थे। जैन चौबीस की मिलना चाहिए वैसा सम्मान मिलने की। वह नहीं मिलता। नहीं संख्या मानते हैं : एक प्रलय और सृष्टि के बीच में चौबीस मिलता, पीड़ा खड़ी होती है। वह जबर्दस्ती थोपने की कोशिश तीर्थंकर। करोड़ों लोग, करोड़ों आत्माएं 'केवल ज्ञान' को करता है। जबर्दस्ती जो उस आदर को करने लगता है वह भी उपलब्ध होंगी, लेकिन चौबीस ही तीर्थंकर? मामला क्या है? विकृत हो जाता है। तब उसके जीवन में सहज श्रद्धा का उपाय न सभी ज्ञानी क्यों तीर्थंकर नहीं हैं? रहा। इसे खयाल में लेना।
तो इस फर्क को खयाल में लेना। वे कहते हैं तीर्थंकर का जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है-सत्यम, शिवम, सुंदरम-जो कर्म-बंध होता है। तीर्थंकर बनने के पहले जिस व्यक्ति ने खूब भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, वह सभी होता है, किया नहीं | करुणा का अभ्यास किया है; तीर्थंकर बनने के पहले जिस जाता। जो किया जाता है वह क्षुद्र है। दुकान चलायी जाती है। व्यक्ति ने सब भांति अहिंसा का अभ्यास किया है; तीर्थंकर मकान बनाए जाते हैं। प्रेम नहीं किया जाता। श्रद्धा नहीं बनायी बनने के पहले जिसने सब भांति अपने चरित्र को इस तरह से जाती। झूठ गढ़े जाते हैं, सत्य नहीं गढ़ा जाता। सत्य का तो नियोजित किया है कि उससे किसी को दुख न हो, किसी को सिर्फ आविष्कार होता है। सत्य तो है; झूठ बनाने पड़ते हैं। | पीड़ा न पहुंचे; जिसने एक गहन अनुशासन अपने जीवन में
तो अगर कर्ता बनना हो तो झूठ बनाना, क्योंकि कर्ता होने का निर्मित किया है...जिसने ऐसा अनुशासन निर्मित नहीं किया वह एक ही उपाय है।
भी ज्ञान को उपलब्ध हो जायेगा; लेकिन जब वह ज्ञान को और अगर अकर्ता बनना हो तो सत्य की खोज करना। | उपलब्ध होगा तो तत्क्षण विराट में खो जायेगा। उसे इस जमीन तीर्थंकर यानी अकर्ता; जो अब कुछ अपनी तरफ से नहीं पर पकड़ रखने के लिए कोई भी उपाय नहीं है। लेकिन जिसने करता है; जो होता है उसे होने देता है, उसे रोकता भी नहीं; जो खूब गहनता से सेवा, दया, करुणा, अहिंसा का अभ्यास किया आता है उसे आने देता है-अगर जीवन है तो जीवन, अगर है जन्मों-जन्मों तक...वह करुणा, सेवा, और दया सहज नहीं मौत है तो मौत; सुख है तो सुख, दुख है तो दुख; जवानी है तो है, चेष्टित है...तो जिसने चेष्टित दया और करुणा का अभ्यास जवानी, बुढ़ापा है तो बुढ़ापा-जो अपनी तरफ से बिलकुल | किया है, उसको तीर्थंकर का कर्म-बंध होता है।
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