Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 637
________________ पूरा अपने में हो जाना। यह तो पर निर्भर हुआ । महावीर कहते हैं, धिक्कार है परवशता पर! यह तो परवशता ही हुई। यह तो... दर्पण के बिना कोई उपाय न चलेगा। यह तो... अगर मुझे संत होना है तो लोगों के बीच होना चाहिए। और मजे की बात है, जरा खयाल करना ! अगर तुम्हें बड़ा संत होना हो तो लोगों को असंत होना चाहिए, तभी तुम बड़े संत हो सकोगे ! अगर सभी लोग संत हों, तुम्हारा संतत्व खो जायेगा । थोड़ी देर सोचो, कोई ऐसी दुनिया हो जहां सभी राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम हों, तो दशरथ के बेटे राम को कौन पूछेगा ? यह तो पूछ इसलिए चलती है कि ये मर्यादा पुरुषोत्तम अकेले हैं। तो इनकी मर्यादा तुम्हारी अमर्यादा पर निर्भर है। साधु का साधु होना तुम्हारे असाधु होने पर निर्भर है। अगर बहुत गहरे में देखो तो साधु मिट जायेगा, जिस दिन जगत साधु हो जायेगा । तो साधु का निहित स्वार्थ यही है कि जगत साधु न हो जाये, जगत असाधु रहे । नेता तभी तक नेता है जब तक और लोगों को नेता होने का खयाल पैदा नहीं हुआ है। जब तक अनुयायी अनुयायी होने को राजी है, तब तक नेता, नेता है। जिस दिन अनुयायियों ने भी घोषणा कर दी कि हम भी नेता हो गए, उस दिन नेता खो जायेगा। अमीर तभी तक अमीर है, जब तक गरीब है। और | तुम्हारे पास बड़ा महल तभी तक हो सकता है जब तक और लोगों के पास छोटे झोपड़े हैं । तो जैसे बड़ा महलवाला आदमी न चाहेगा कि सभी के पास बड़े महल हो जायें...। यह तो साफ समझ में आता है, अर्थशास्त्र का सीधा नियम है, कि अमीर का मजा उसकी अमीरी में तभी तक है जब तक और लोग गरीब हैं। तुम्हारे पास एक शानदार कार है, तो उसका मजा तभी तक है जब तक दूसरे लोगों पर, राह चलते लोगों पर बरसात में तुम कीचड़ उछालते हुए कार से निकल जाते हो। अगर सभी के पास वैसी गाड़ियां हैं, बात खतम हो गयी ! तुम्हारा सारा मजा इस कार में चला जायेगा। इस कार का मजा कार में न था; दूसरों के पास कार नहीं है, उसमें था । जीवन का जाल बड़ा जटिल है! मेरे एक मित्र हैं कलकत्ते में। मैं उनके घर में कभी-कभी रुकता था । वे बिलकुल पागल थे अपने मकान के लिए। उन्होंने शानदार मकान बनाया था । कलकत्ते में उसकी कोई तुलना न Jain Education International मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि थी। उन्होंने पूरे कलकत्ते को मात कर दिया था। चौबीस घंटे वे मकान के ही खयाल से भरे रहते थे... तो जब भी मैं उनके घर जाता तो मकान, मकान... यह दिखाते, वह दिखाते ! नया स्विमिंग पूल बना डाला । क्या-क्या उन्होंने कर डाला है, वह दिखाते। एक बार जब मैं गया तो उन्होंने मकान की कोई बात न की । और मैं तो पहले से ही तैयार होकर आया था कि वह मकान की बात सुननी पड़ेगी। वे कुछ बोले ही नहीं मकान पर और कुछ बड़े उदास दिखे, उत्साह भी कुछ ढीला मालूम पड़ा, कुछ सुस्त से मालूम पड़े। सांझ होते-होते मैंने पूछा, 'मामला क्या है ? मकान का क्या हुआ ?' उन्होंने कहा, 'वह बात ही मत उठाओ!' मैंने कहा, 'कुछ तो बात होगी। तुम उदास भी हो। वह सदा की प्रफुल्लता, मकान की चर्चा, कुछ नया किया, कुछ नया बनाया - वह सब हुआ क्या?' वे मुझे हाथ पकड़कर बाहर लाए पड़ोस में, कहा कि वह देखो! एक आदमी ने उनसे बड़ा मकान बना लिया ! वे बोले, जब तक इसको मात न कर दूं, तब तक अब क्या बात करना ! मन बड़ा दुखी रहने लगा। अभी सुविधा भी नहीं है कि इतना ऊंचा उठा लूं। मात हो गया हूं! मैंने कहा कि तुम्हारा मकान वैसा का वैसा है। इस पर किसी ने छुआ भी नहीं है। कुछ घटा नहीं, कुछ बिगड़ा नहीं; सब सुंदर है। लेकिन पास के आकाश में एक नया मकान खड़ा हो गया ! किसी ने तुम्हारी लकीर के पास बड़ी लकीर खींच दी - तुम्हारी लकीर को छुआ भी नहीं है, तुम अचानक छोटे हो गये ! तो मैंने उनसे कहा, अब तुम यह तो सोचो, तो यह मजा तुम जो अपने मकान में ले रहे थे, अपने मकान का मजा न था; वह जो झोपड़े पास में थे, उनका मजा था। तो तुम्हारी अमीरी किसी के गरीब होने में निर्भर है। और वही बात तुम्हारे साधु के संबंध में भी सच है । अगर दुनिया से असाधु खो जाये तो तुम्हारा साधु... फिर कौन उसे मंदिरों में विराजमान करेगा? कौन उसके सामने पूजा के थाल सजायेगा ? कौन अर्चना के दीप उतारेगा ? वह खो जायेगा । इसलिए साधु कहता तो यही है तुमसे कि सब साधु बनो; लेकिन उसकी अंतर्तम की प्रार्थना यही होती है कि हे प्रभु, इन सबको साधु मत बना देना! उसकी हालत, जिसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं 'पेराडाक्सिकल इंटेशन', विरोधाभासी आकांक्षा की है। जैसे चिकित्सक के पास तुम जाते हो... तुमने कभी खयाल For Private & Personal Use Only 627 www.jainelibrary.org

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