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करना । इसलिए हम कपड़ों पर बड़ी जिद्द करते हैं।
अगर कोई आदमी रास्ते पर पुलिसवाले के कपड़े पहनकर निकल पड़े तो फौरन पकड़ लेंगे उसको कि यह तुम क्या कर रहे हो, क्योंकि इससे फर्क कम हो जाता है। तुमने कभी पुलिसवाले को वर्दी के बिना देखा ? लज्जत ही खो जाती है, शान ही चली जाती है! वही आदमी जब अपनी वर्दी में खड़ा होता है, तब देखो। तब एक शान आ जाती है !
'कर्नल राज' वहां बैठे हुए हैं, सिर छिपाए हुए हैं। उनको संन्यासी के वेश में देखो और जब वह मेजर, कर्नल के वेश में होते हैं, तब देखो! तब बात ही और बदल जाती है !
आदमी चलता और ढंग से है जब कपड़े कर्नल के होते हैं। उसके पैरों की आवाज, उसके जूतों की चरमराहट, उसके कपड़ों की शिकन, सब बदल जाती है। आदमी का थोड़ा हमें हिसाब है, हमें हिसाब तो कपड़ों के हैं।
कहते हैं गालिब को बहादुरशाह ने निमंत्रित किया था भोजन के लिए ! वह गरीब आदमी था, अपने साधारण कपड़ों को पहने चला गया। मित्रों ने कहा भी कि इन कपड़ों में तुम्हें कोई दरबार में प्रवेश न करने देगा। पर उसने कहा कि निमंत्रण मुझे मिला है कि कपड़ों को ?... जिद्दी ! नहीं माना गया। जब द्वारपाल को जाकर उसने कहा कि मुझे भीतर जाने दो, तो द्वारपाल ने धक्का | देकर उसे हटा दिया। उसने कहा कि "भिखमंगों के लिए राजमहल में निमंत्रण !... दिमाग खराब गया है?' उसको तो भरोसा ही नहीं आया कि यह दुर्व्यवहार...! उसने खीसे से निमंत्रण-पत्र निकालकर दिखाया तो उसने झपट्टा मारकर वह भी छुड़ा लिया। उसने कहा, 'किसी का चुराया होगा ! किसका उठा लिया ?"
वह बेचारा गालिब घबड़ाया, घर वापिस लौट आया। मित्रों ने कहा, 'हमने पहले कहा था, हम जानते थे। हम कपड़े ले आये हैं।' तो उन्होंने अचकन वगैरह पहना दी। ठीक-ठाक कपड़े | पहना दिए, जूते नये पहना दिए । और जब यह आदमी वापस गया तो वही द्वारपाल झुककर नमस्कार किया कि आइये! तुम हंसना मत द्वारपाल पर, तुम भी होते तो यही करते। फिर जब | भोजन के लिए बैठे तो बहादुरशाह ने ... तो गालिब का बड़ा सम्मान था उसके मन में। वह भी कवि था, बहादुरशाह भी कवि था। और गालिब की कविता का तो क्या कहना ! वैसे उस्ताद तो
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मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि
बहुत कम हुए हैं! तो उसने तो अपने पास ही बिठाया। और जब गालिब भोजन करने लगा तो उसने पहले उठायी मिठाई, अपने कोट को कहा कि ले खा, टोपी को लगाया कि ले खा! तो बहादुरशाह को कुछ लगा कि कवि पागल होते हैं, यह तो ठीक है; लेकिन इतने होते हैं, यह नहीं सोचा था । उसने कहा, 'क्षमा करें! आप यह क्या कर रहे हैं? यह कौन-सी शैली है भोजन करने की ?' गालिब ने कहा, 'मैं तो पहले भी आया था। मैं तो लौटा दिया गया, मैं फिर आया ही नहीं। ये तो अब वस्त्र आए हैं। यह भोजन इन्हीं के लिए है। इन्हीं को प्रवेश मिला है, मुझे तो प्रवेश नहीं मिला। मैं तो बाहर से ही लौट गया हूं। वह तो पहरेदार ने धक्का दे दिया। तो जिनकी वजह से मैं भी पीछे-पीछे चला आया हूं, क्योंकि मजबूरी थी, मेरे बिना ये वस्त्र कैसे आते, ये मेरे बिना आते ही नहीं और इनके बिना मैं नहीं आ सकता था, तो जिनके कारण आ गया हूं छाया की तरह, उनको तो पहले भोजन करा दूं।'
महावीर जब नग्न खड़े हो गए तो उन्होंने तुम सबको नग्न कर दिया; उन्होंने सबके वस्त्र उघाड़ दिए। बड़ी अनैतिकता मालूम पड़ी लोगों को यह आदमी तो खतरनाक है ! इसको कौन चरित्रवान कहेगा ? यह कैसी मर्यादा ? यह तो मर्यादा छोड़ना है, यह तो स्वच्छंदता है।
इसलिए महावीर कहते हैं कि सम्यक दृष्टि तो अनिवार्यरूपेण आचरणवाला होता है, लेकिन उसका आचरण समाज की तथाकथित धारणा से मेल खाए न खाए। इसलिए वे कहते हैं, कि अगर न भी मेल खाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता ।
सिज्झति चरियभट्ठा। वह जिसको लोग सोचते हैं चरित्र - भ्रष्ट, वह भी केवल दर्शन के सहारे मुक्त हो जाता है, सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है। किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते।
इसलिए जो पाना है, जो खोजना है, वह दृष्टि है, वह देखने का ढंग है; वह साफ-सुथरी आंख है; वह निर्मल भाव - दशा है। आंख पर कोई विचार न रह जाये। आंख पर कोई धारणा न रह जाये। आंख पर कोई पक्षपात न रह जाये। आंख ऐसी निर्मल हो, पारदर्शी हो कि जो है, जैसा है, वैसा दिखाई पड़ने लगे- बस पर्याप्त है। उसके पीछे ज्ञान अपने से आ जाता है, चारित्र्य अपने से आ जाता है। लेकिन यह चारित्र्य जरूरी नहीं है
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