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1. जिन सूत्र भाग:
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किया? अगर तुम्हारी जेबें भरी हों तो बीमारी के ठीक होने में रहें।' उसने कहा, 'जरूर प्रार्थना करेंगे, क्यों न प्रार्थना करेंगे। ज्यादा देर लगती है। इस अर्थ में गरीब आदमी सौभाग्यशाली रोज यही प्रार्थना करेंगे कि तुम्हारा धंधा...लेकिन यह तो बताओ है। अगर तुम बहुत अमीर हो और एक दफे बीमार पड़ गए, तो तुम्हारा धंधा क्या है?' उसने कहा, अब यह मत पूछो, अन्यथा पड़ गए, अब तुम ठीक न हो सकोगे। क्योंकि चिकित्सक की तुम प्रार्थना न कर पाओगे। मैं मरघट पर लकड़ियां बेचता हूं। विरोधाभासी आकांक्षा है। वह तुम्हारी बीमारी पर जीता है और लोग मरते रहें, लकड़ियां बिकती रहें, तो मैं आता रहूं। मेरा धंधा तुम्हें स्वस्थ करने का आयोजन कर रहा है। उसका सारा जीवन चले...। तुम बीमार रहो, इस पर निर्भर है। और उसकी सारी चेष्टा इस अब कुछ हैं जो मरघट पर लकड़ियां बेचते हैं, उनका धंधा ही पर निर्भर है कि तुम ठीक हो जाओ। यह विरोधाभासी बात है। यही है कि लोग मरें।
मैंने सुना है, एक डाक्टर का बेटा कालेज से वापिस लौटा एक गांव में एक नया-नया इंस्पेक्टर आया। वह दिनभर बैठा डाक्टर होकर। तो बाप बहुत दिन का थका था और विश्राम न रहा। कपड़े-लते सजाकर, बैल्ट इत्यादि, जूते इत्यादि बांधकर लिया था, तो उसने कहा, 'मैं सात दिन के लिए छुट्टी पर चला दिनभर बैठा रहा। बार-बार चौंककर देखे; लेकिन कोई घटना जाऊं, पहाड़ चला जाऊं। अब तू घर आ गया है, तू सम्हाल ही न घटी दिनभर। न कोई चोरी हुई न कोई डाका पड़ा, न कहीं ले।' सात दिन बाद जब बाप लौटा तो बेटे ने उसे बड़ी खुशी से कोई हत्या हुई, न किसी ने आत्महत्या की, न कोई दंगा-फसाद दरवाजे पर कहा कि पिताजी, जिस सेठानी को आप बीस साल हुआ, न कोई हिंदू-मुसलमान मरे, कुछ भी न हुआ। वह जरा में ठीक न कर पाए उसे मैंने पांच दिन में ठीक कर दिया! बाप ने उदास होने लगा। सांझ होने लगी तो उसका चेहरा एकदम फीका सिर ठोक लिया और उसने कहा, 'नासमझ ! उसी की वजह से पड़ने लगा। तू कालेज में पढ़ सका और उसी पर आशा थी कि और बच्चे भी उसके मुंशी ने कहा, 'आप घबड़ाओ मत! मुझे मनुष्य के पढ़ लेंगे। उसे ठीक करना ही नहीं था। यह तूने क्या किया? स्वभाव पर पूरा भरोसा है। ठहरो, कुछ न कुछ होकर रहेगा। तूने सारा खेल खराब कर दिया।'
अभी रात पड़ी है। तुम इतने उदास क्यों हुए जा रहे हो?' चिकित्सक दिखाता है तुम्हें ठीक करने की चेष्टा। शायद खुद ___ अब वह जो चोर को पकड़ने पर जीता है, वह पकड़ता चोर को भी मानता है कि तुम्हें ठीक करना चाहता है। शायद खुद के है, लेकिन प्रतीक्षा करता है कहीं चोरी हो। वह जो न्यायाधीश है. चेतन में कहीं कोई बात भी नहीं है; तुम्हें ठीक ही करने का वह सजा देता है हत्यारों को, लेकिन उसका सारा होना उन्हीं के आयोजन करता है। लेकिन अंतस-चेतन में, गहरे अनकांशस होने पर निर्भर है। उन्हीं की साझेदारी में वह न्यायाधीश है। में...अगर उसके हम अंतस-चेतन को खोल सकें तो कहीं तो जीवन के इस व्यंग्य को समझना। यह बात छिपी होगी कि लोग बीमार रहें, बीमार रहें तो ही तो वह साधु तुमसे कहे चला जाता है कि क्या तुम असाधु बने हो, जी सकता है।
| बनो साधु! बनना भर मत, अन्यथा वह नाराज हो जाएगा। एक एक रात एक मधुशाला में बड़ा उत्सव रहा। एक आदमी साधु दूसरे साधु से प्रसन्न थोड़े ही है! एक साधु दूसरे साधु से पहली दफे अपने मित्रों को लेकर आया था और उसने खूब रुपये बड़ा अप्रसन्न है। तुम असाधु हो, इससे वह खुश है। उसकी उछाले, खूब पीया-पिलवाया। मधुशाला का मालिक भी चकित साधुता, उसका ऊंचा सिंहासन तुम्हारी छाती पर लगा है। अगर हो गया! ऐसा दिलदार उसने कभी देखा न था! और जब आधी वास्तविक रूप से किसी दिन दुनिया धार्मिक हो जायेगी तो न रात वे जाने लगे, हजारों रुपये लुटाकर, तो उसने अपनी पत्नी से असाधु रह जाएंगे, न साधु रह जाएंगे। कहा कि ऐसे ग्राहक रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में हम साधु का सारा बल इसमें है कि उनके पास चरित्र है और तुम्हारे मालामाल हो जायेंगे। चलते-चलते उसने अपने इस ग्राहक को पास नहीं है। उसने कुछ करके दिखा दिया है जो तुम नहीं कर कहा कि कभी-कभी आया करें। उस ग्राहक ने कहा, 'प्रार्थना पाए; भला वह करना बिलकुल मूढ़तापूर्ण है। भला वह इस करो हमारे लिए कि हमारा धंधा ठीक चलता रहे तो हम आते तरह का मूढ़तापूर्ण हो कि एक आदमी रास्ते पर शीर्षासन
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