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आदत हो गयी है। उसे रास्ते का एक-एक पत्थर परिचित है। उसे रास्ते का एक-एक मोड़ परिचित है। वह रास्ते पर चल लेता है, लेकिन चल लेने से कुछ आंख थोड़े ही खुल जाती है। आंख खुलने से चलना हो सकता था; इसने धोखा दे लिया।
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जिसको तुम चरित्रवान कहते हो, वह ऐसा ही आदमी है जिसको अभी दिखायी तो नहीं पड़ा, लेकिन सुनकर औरों को, कान का भरोसा करके, अभ्यास कर लिया है। तो लोग अहिंसा का अभ्यास कर रहे हैं। अहिंसा का कोई अभ्यास हो ही नहीं सकता । अहिंसा की तो आंख होती है। प्रेम की एक दृष्टि होती है। प्रेम का एक भाव होता है। प्रेम तो एक नया जन्म है। तुम्हारा हृदय और ही ढंग से देखना शुरू करता है, तब अहिंसा फलित होती है। तब अहिंसा बड़ी जीवंत होती है। तब उस अहिंसा में पुलक होती है, प्रसन्नता होती है।
लेकिन तुम दूसरों को सुनकर, लोभ के कारण कि परलोक को सम्हालना है, चरित्र को बना ले सकते हो, अहिंसक हो सकते हो, फूंक-फूंककर पैर रख सकते हो।... . चींटी भी न मरे, लेकिन तुम मर जाओ! तुम सब बचा सकते हो, लेकिन अपने को न बचा सकोगे। और असली बात तो वही थी।
दंसणभट्ठा भट्ठा ।
जिसके पास आंख नहीं है, वही भटका हुआ है : सम्यक दर्शन से जो भ्रष्ट, वही भ्रष्ट । महावीर का वचन बहुत साफ है। दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं ।
और जो दर्शन से भ्रष्ट है, उसका कोई निर्वाण नहीं, उसका कोई मोक्ष नहीं। यहां तक भी जैन को कठिनाई न होगी। आगे जो सूत्र है - सिज्झति चरियभट्ठा, चरित्र - भ्रष्ट भी अगर आंखवाला है तो पहुंच जाता है - यहां अड़चन होगी। तो जैन जब अनुवाद करते हैं, जैन मुनि जब अनुवाद करते हैं, तो वे क्या करते हैं अनुवाद में? वे इस सीधे-साधे वचन का जहां दो शब्द हैं केवल - सिज्झति चरियभट्ठा - जो नहीं भी जानते प्राकृत वे भी कह सकते हैं - सिज्झति चरियभट्ठा - वे भी सिद्धि को पहुंच जाते हैं जो चरित्र - भ्रष्ट हैं। जैन अनुवाद में क्या करते हैं? वे कहते हैं, 'चरित्र - विहीन सम्यक दृष्टि तो चारित्र्य धारण करके सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं।'
चारित्र्य धारण करके? इस तरह महावीर को विकृत करने में सुविधा हो जाती है। जैनों को तकलीफ है कि अगर यह बात
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मोक्ष का द्वार : सम्यक दृष्टि
सही है कि चरित्र - भ्रष्ट व्यक्ति भी, सिर्फ आंख के होने के कारण सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है तो हमारे सारे चरित्र का, जो हमने आयोजन किया है, उसका क्या होगा? तो उसमें दो छोटे-से शब्द जोड़ दिए, कोष्ठक में रख दिए : 'चरित्र - विहीन सम्यक दृष्टि तो (चारित्र्य धारण करके) सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।' यह महावीर ने कहीं कहा नहीं। महावीर का वचन सिर्फ सीधा-साफ है। उन्हें कहना होता तो वे खुद ही कह देते; ये कोष्ठक वे भी लगा सकते थे।
सिज्झति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झति ।
लेकिन दर्शन - भ्रष्ट नहीं सिद्ध होता; चरित्र - भ्रष्ट तो सिद्ध हो सकता है। अब यहां बहुत से सवाल सोचने जैसे हैं। पहली बात : चरित्र - विहीन सम्यक दृष्टि ! इसका अर्थ हुआ, महावीर यह स्वीकार करते हैं कि चरित्र - विहीन भी सम्यक दृष्टि हो सकता है। इसका यह अर्थ हुआ कि चारित्र्य का होना या न होना मौलिक नहीं है । चारित्र्य का होना न होना छाया की भांति है। छाया बन भी सकती है, न भी बने। क्योंकि छाया तुम पर निर्भर नहीं होती। तुम सोचते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारा पीछा करती है - इस भूल में मत पड़ना । छाया तुम पर निर्भर नहीं होती, अन्य कारणों पर निर्भर होती है। छाया तुम्हारी नहीं है, जैसा तुम सोचते हो; सूरज पर निर्भर है। छाया में खड़े हो जाओगे तो छाया खो जायेगी। सूरज सिर पर आ जायेगा, छाया छोटी हो जायेगी। सूरज पीछे होगा, छाया आगे पड़ेगी। सूरज आगे होगा, छाया पीछे पड़ेगी। तुमने सदा यही सोचा है कि छाया मेरी... और गलत सोचा है । छाया से तुम्हारा क्या लेना-देना? अगर सूरज न होगा तो कोई छाया न होगी । छाया तुम पर निर्भर नहीं है, अन्य कारणों पर निर्भर है।
अगर तुम्हारे चारों तरफ कई प्रकाश लगा दिये जायें तो कई छायाएं एक साथ बनने लगेंगी। यहां तुम बैठे हो, अगर कोई प्रकाश नहीं तो छाया न बनेगी।
चारित्र्य मौलिक नहीं है, और और कारणों पर निर्भर होता है; छाया की भांति है। लेकिन दर्शन मौलिक है । दृष्टि मौलिक है। वह तुम्हारी है। वह किसी सूरज पर निर्भर नहीं है। अंधेरे में भी जब सूरज नहीं होता तब भी तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे पास है। उसी दृष्टि के कारण तो तुम कहते हो, बड़ा घना अंधेरा है! अंधेरा भी तो दिखायी पड़ता है!
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