Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 622
________________ 612 जिन सूत्र भाग: 1 मरुस्थल में भटकते-भटकते खो जाये और उसे सागर न मिले। हृदय से पूछो ! हृदय और प्रेम का समझौता है । और हृदय कह रहा है...। 'लेकिन मेरा अहंकार मुझे प्रेम में पूरी तरह डूबने नहीं देता । मेरा हृदय नारद के साथ है और मेरी बुद्धि महावीर के साथ।' तो तुम चुन ! अगर तुम्हें लगता है कि हृदय गलत कह रहा बुद्धि के साथ कुछ दिन चल लो, दौड़ लो। सौ में से कभी कोई एकाध पहुंच पाता है। कोई महावीर ! बहुत दुर्गम है। क्योंकि व्यर्थ की उलझन अस्मिता की खड़ी हो जाती है। कोई परमात्मा नहीं, जहां सिर झुकाया जा सके, तो बिना किसी परमात्मा के सामने सिर झुकाना आ जाना बहुत दुर्लभ है । महावीर को घटा; बिना किसी परमात्मा के सिर झुका दिया; बिना किसी वेदी के आहुति चढ़ा दी। कोई नहीं है परमात्मा, इस कारण साधारणतः तो 'मैं' मजबूत होगा। तो इसकी बहुत कम संभावना है कि तुम महावीर हो सको; इसकी संभावना ज्यादा है कि तुम नीत्से हो जाओ। नीत्से | का भी तर्क वही है । वह कहता है, कोई परमात्मा नहीं। लेकिन जैसे ही उसने कहा कोई परमात्मा नहीं, उसने तत्क्षण कहा जब परमात्मा नहीं है तो अब मनुष्य स्वतंत्र है कुछ भी करने को । फल क्या हुआ? फल हुआ नीत्से का पागल हो जाना। वह अहंकार मजबूत होता चला गया। कहीं कोई वेदी न मिली जहां चढ़ा देता । वेदी को इनकार कर दिया । इनकार करने का कारण ही यही बताया कि 'अगर परमात्मा है तो मैं नीचा हो गया और मैं नीचे कैसे हो सकता हूं! मेरे से ऊपर कोई भी नहीं हो सकता।' इसलिए परमात्मा को इनकार किया । नीत्से पागल हुआ । सौ में निन्यानबे मौके ये हैं कि तुम पागल हो जाओगे । महावीर बड़े कुशल व्यक्ति हैं। चुना तो ठीक वही मार्ग जो नीत्से का है; लेकिन परमात्मा नहीं है, इससे यह निष्कर्ष न लिया कि मनुष्य अब स्वच्छंद है। इससे उलटा ही निष्कर्ष लिया। महावीर ने कहा, 'चूंकि परमात्मा नहीं है, इसलिए अब कोई स्वच्छंदता न चलेगी; सारा उत्तरदायित्व मेरा है ।' समझे फर्क ? नीत्से ने कहा, कोई परमात्मा नहीं, तो अब करो जो करना है। महावीर ने कहा, अब तो कुछ करने का उपाय ही न रहा; अब तो जो भी किया, जिम्मेवारी मेरी है। परमात्मा होता तो कुछ रास्ता भी Jain Education International निकाल लेते- कुछ भी करने का, तीर्थ स्नान कर आते, मंदिर में पूजा कर देते, प्रार्थना करके समझा-बुझा लेते; पाप हो जाता, पश्चात्ताप कर लेते — और फिर वह करुणावान है, रहीम है, रहमान है; वह क्षमा कर ही देता; उसने तो बड़े-बड़े पापियों को क्षमा कर दिया। कहते हैं, एक पापी ने मरते वक्त भूल से अपने लड़के को बुलाया : नारायण, नारायण ! लड़के का नाम नारायण था और ऊपर के नारायण ने समझा कि मुझे पुकार रहा है। क्षमा कर दिया। स्वर्ग में उठा लिया। बैकुंठ में वास कर रहा है वह पापी अब तो जो इतनी सरलता से फुसला लिया जाता है; रिश्वत भी जिसकी इतनी सस्ती है; बुलाया भी नहीं था जिसे, किसी और को ही बुलाया था, लेकिन नाममात्र का संयोग मिल गया, 'नारायण', और जो भूल में पड़ गया; जो ऐसा खुशामद - लोलुप है - ऐसा परमात्मा हो तो फिर कुछ भी करने की छूट है। अगर महावीर से पूछो तो महावीर यह कहेंगे, अगर परमात्मा है तो फिर मनुष्य स्वच्छंद है। फिर जो भी करना हो करो; क्योंकि आखिर में तो वह है, उसके चरण पर गिड़गिड़ा लेना, रो लेना, माफी मांग लेना । और वह करुणावान है, वह क्षमा कर देगा। तो जो निष्कर्ष नीत्से ने लिया, वही निष्कर्ष महावीर ने लिया - लेकिन बिलकुल उलटी तरफ से । अगर परमात्मा है तो आदमी स्वच्छंद हो जायेगा। तो महावीर ने कहा, परमात्मा तो कोई भी नहीं है; इसलिए प्रार्थना का उपाय नहीं है। अपने को बनाना है, निर्मित करना है, छांटना है, काटना है, निखारना है, सब अपना ही है। खुद की जिम्मेवारी चरम है। यह उत्तरदायित्व आखिरी है। इसको तुम किसी और पर न टाल सकोगे। इसलिए तुम आखिर में यह न कह सकोगे कि मैं क्या करूं, हो गया । भोगना पड़ेगा। स्वच्छंदता का कोई उपाय नहीं । तो महावीर ने तो परमात्मा के न होने से उत्तरदायित्व लिया । नीत्से ने परमात्मा के न होने से स्वच्छंदता ली। महावीर तो विमुक्त हो गये, नीत्से विक्षिप्त हो गया। दोनों के तर्क का प्रारंभ बिलकुल एक जैसा था, लेकिन अंत बड़ा भिन्न हुआ। कहां महावीर परम सुगंध को उपलब्ध हुए और कहां नीत्से पागलखाने में सड़ा और मरा! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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