________________
हला प्रश्न: आप कहते हैं कि पुण्य भी बांधता है रहे जैसा इस भिखमंगे को देखने के पहले थे। राह पर तुम
और पाप भी बांधता है। तो तीर्थंकरों को उनका निकले, कोई न था, अकेले थे, फिर एक भिखमंगा दिखायी करुणाजन्य कर्म क्यों नहीं बांधता?
| पड़ा, दया उठी, भाव का निर्माण हुआ—फिर भाव से कृत्य
आया। तुम्हारी दशा बदली। तीर्थंकर की दशा नहीं बदलती; पहली बात तीर्थंकर जो करते हैं वह कर्म नहीं है, कृत्य नहीं है। इसलिए करुणाजन्य नहीं है कृत्य, करुणापूर्ण जरूर है। जब क्योंकि कर्ता का कोई भाव नहीं है। तीर्थंकर जो करते हैं वह भिखारी नहीं है मार्ग पर, तब भी तीर्थकर करुणा से भरे हैं। तुम करते नहीं होता है। जैसे तुम श्वास ले रहे हो, श्वास लेना नहीं भरे हो। तुम्हें करुणा से भरने के लिए किसी का दुखी होना कृत्य नहीं है। जैसे श्वास सहज चल रही है, और जब न चलेगी | जरूरी है। तो तुम कुछ भी न कर पाओगे-जब तक चलेगी, चलेगी; जब इसे ठीक से समझना। अगर दुनिया से दुखी लोग विदा हो रुकेगी तो रुक जायेगी। तुम्हारे हाथ के भीतर नहीं है। तुम्हारा जायेंगे तो तुम्हारी दया भी समाप्त हो जायेगी। किस पर दया कृत्य नहीं है। अहंकार-नियंत्रित नहीं है।
करोगे? किसको दान दोगे? तुम्हारी दान और दया के लिए तीर्थंकर का कृत्य, कृत्य नहीं-श्वास जैसी सहज दशा है। किन्हीं का दुखी रहना जरूरी है। तुम्हारी दान, दया के लिए दुख होता है, किया नहीं जाता। करनेवाला कोई भी बचा नहीं है। आवश्यक है। कोई न होगा कोढ़ी, कोई न होगा करुणाजन्य है, ऐसा कहना भी गलत है। करुणापूर्ण है, लेकिन | बीमार-किसके पैर दबाओगे? तुम्हारी दया एकदम मर करुणाजन्य नहीं। करुणाजन्य तो तब होता है जब तुम्हें दया आए। जायेगी, कुम्हला जायेगी। उसके लिए बाहर से कोई प्रेरणा
और तुम कुछ करो। करुणापूर्ण तब होता है जब तुम करुणा से चाहिए। तो तुम्हारी दया भी बाहर से पैदा हुआ परिणाम है। पूर्ण हो गए हो-और उससे कुछ बहता है।
तीर्थंकर करुणापूर्ण हैं-नहीं कि किसी पर करुणा करते हैं; इन दोनों में फर्क है।
करुणा से भरे हैं, जैसे दीये से प्रकाश झरता है: कोई निकल जाये जब तुम्हें राह चलते किसी भिखमंगे पर दया आती है तो तुम्हारे तो उस पर पड़ता है, कोई न निकले तो भी जलता रहता है; भीतर कुछ हलन-चलन हो गया; तुम्हारी ज्योति कंप गयी; किसी के निकलने से नहीं जलता और किसी के चले जाने से बझ तुम्हारी प्रज्ञा थिर न रही। दूसरे के दुख से कंप गयी। पहले दूसरे नहीं जाता; किसी पर निर्भर नहीं है। आत्म भाव की दशा है। के सुख से कंपती थी। किसी ने बहुत बड़ा मकान बना लिया तो तो तीर्थंकर की करुणा तुम्हारे दुख के कारण नहीं है। तुम सुखी ईर्ष्या जगी थी; अब किसी के मकान में आग लग गयी, तो दया । हो तो भी तीर्थंकर की करुणा तुम पर उतनी ही है जितने तुम दुखी उठी। लेकिन हर हाल तुम कंपे, तुम थिर न रहे; तुम वैसे ही न हो। तुमसे कुछ प्रयोजन नहीं है। तुम नहीं हो तो भी तीर्थंकर की
1608
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org