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जिन सूत्र भागः1
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वर्तमान उसका ढंग है। तुम जाते हो-या तो जब बीत चुकी अस्तित्व का। बहार या अभी जब आयी नहीं; या तो अतीत के ढंग से या सेवन...'सेवन' बड़ा प्यारा शब्द है! इसका भोग करता है। भविष्य के ढंग से।
| जैन मुनि 'भोग' शब्द को लाने में अड़चन अनुभव किए निर्विचार में जो खड़ा है वह वर्तमान से जुड़ता है। उसका होंगे। 'सेवन करता है' उनको लगा होगा, इसे 'करना चाहिए' सीधा-सीधा संबंध हो जाता है। वह आमने-सामने खड़ा होता में बदलो। है। यह प्रतीति, यह साक्षात्कार, महावीर कहते हैं, समयसार। यह हमारे सारे शास्त्रों के साथ होता है। जहां 'है' की सूचना _ 'साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन करना है वहां 'होना चाहिए', हम अनुवाद करते हैं। जहां केवल 'है' चाहिए। निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना की सूचना है—जैसे कि आग जलाती है, यह तो ठीक है; चाहिए। ये तीनों आत्मरूप ही हैं। अतः निश्चय से आत्मा का लेकिन आग को जलाना चाहिए, तब अड़चन हो गयी। कोई सेवन ही उचित है।'
ऐसा अनुवाद न करेगा कि आग को जलाना चाहिए, क्योंकि दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
आग इस तरह की बकवास को मानती ही नहीं। वह तो जलाती ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।। है। 'चाहिए'-वासना, कामना आ गयी; भविष्य आ गया। इस वचन के जो भी अनुवाद किए गए हैं, उनमें थोड़ा-सा फर्क 'चाहिए' का अर्थ ही हुआ कि कल हो सकेगा, आज नहीं हो मालूम होता है। और फर्क बहुमूल्य है। जिन्होंने अनुवाद किये सकता। ‘चाहिए' का मतलब ही यह हुआ कि जो है नहीं; हैं—जैन साधु, मुनि अनुवाद करते हैं। अनुवाद में उनका कोशिश करके लाना होगा। तो कोशिश में तो समय लगेगा। व्यक्तिगत पक्षपात उतर जाता है। जैसे दसणाणचरित्ताणिः दिन लग सकते हैं, वर्ष लग सकते हैं, जन्म लग सकते हैं। कौन दर्शन, ज्ञान और चरित्र; सेविदव्वाणि साहुणा णिच्वं : इनका | जाने कितना समय लगेगा तब हो पायेगा! नित्य सेवन, यही साधु का लक्षण है। लेकिन अनुवाद क्या लेकिन साधारणतः दूसरे सुननेवाले भी इस अनुवाद से राजी किया जाता है : साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन होते हैं, क्योंकि उनको भी सुविधा मिल जाती है। वे भी कहते हैं, करना चाहिए। चाहिए कहीं मूल सूत्र में नहीं है। मूल सूत्र में तो 'चाहिए' ठीक है। कल पर स्थगित करने का उपाय है। तो सिर्फ व्याख्या है कि साधु कौन। साधु का कर्तव्य नहीं गिनाया कल कर लेंगे। साधुता कल, असाधुता आज! | है, साधु की परिभाषा है। साधु कौन? जो नित्य दर्शन, ज्ञान तुमने देखा, अगर दान देना हो तो तुम कहते हो देंगे; क्रोध
और चरित्र का सेवन करता है-पालन भी नहीं। मूल शब्द है : करना हो तो तुम नहीं कहते, करेंगे। तुम कहते हो, करते हैं सेविदव्वाणि-जो सेवन करता है; पालन नहीं; जो भोजन अभी! क्रोध होता है। और करुणा? करनी चाहिए! यह बड़े करता है; जो उपभोग करता है; जो भोगता है। साधु है वह जो मजे की बात है। अगर दान देना है, तो तुम कहते हो, करेंगे! दर्शन, ज्ञान और चरित्र का नित्य भोग करता है।
__ एक मित्र संन्यास लेने आये थे, वे कहने लगे, सोचता हूँ! अब बात साफ हो सकती है। पहले तो नित्य, प्रतिपल, बहुत दिन से सोच रहा हूं। अभी भी विचार कर रहा हूं, अभी भी वर्तमान में न तो बीते कल में न आनेवाले कल में-अभी और पक्का नहीं कर पाता। यहां भोग करता है। असाधु या तो अतीत में भोगता है या मैंने उनसे पूछा, क्रोध के संबंध में सोचते हो कि बिना ही सोचे भविष्य में।
पक्का कर लेते हो? वे कहने लगे कि क्रोध के संबंध में तो गये हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन
हालत उलटी है : सोचते हैं कि न करें और होता है। और संन्यास कभी बहार से पहले कभी बहार के बाद।
के संबंध में हालत यह है कि सोचते हैं कि लें, और नहीं होता। -वह असाधु। साधु वह जो अभी और यहीं के द्वार से हमने शुभ को, श्रेष्ठ को, सत्य को, शिवम् को टालने के उपाय अस्तित्व में प्रवेश करता है; जो 'अब' के द्वार से अस्तित्व में | किए हैं। तो इसलिए इन अनुवादों पर कोई एतराज भी नहीं प्रवेश करता है; जो यहां और ठीक अभी साक्षात्कार करता है करता। यह सिर्फ सूचक हैं।
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