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जन सूत्र भागः1..
जहां महत्वाकांक्षा न रही, तृष्णा न रही, वहां और जन्म न रहे। है। और जब तक जोड़ा जा सकता है तब तक तुम अतृप्त जहां महत्वाकांक्षा न रही, वहां भविष्य न रहा, समय न रहा; | रहोगे। यह दौड़ तो कभी पूरी न होगी! वहां हम शाश्वत में प्रवेश करते हैं।
इसलिए बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर है। इसे कोई कभी भर शाश्वत में प्रवेश होने से जो अनुभव होता है उसी का नाम नहीं पाया। नहीं कि संसार में भरने के साधन नहीं हैं; पर तृष्णा शांति है। समय में दौड़ने से जो अनुभव होता है उसी का नाम | का स्वभाव दुष्पूर है। इस तृष्णा को जब हम थका-थका पाते हैं अशांति है। आज से कल, कल से परसों! जहां हम होते हैं वहां | संसार में और भर नहीं पाते तो हम प्रभ की ओर मड़ते हैं। प्रभ कभी नहीं होते अशांति का यही अर्थ है। जो हम होते हैं उससे की ओर मुड़ना तो ठीक, लेकिन मुड़ने का कारण गलत होता है। हम कभी राजी नहीं होते-कुछ और होना चाहिए! हमारी मांग प्रभु की ओर मुड़कर धीरे-धीरे तुम्हें समझ में पड़ेगा कि तुम्हारी का पात्र कभी भरता नहीं। हमारा भिक्षापात्र खाली का खाली आंखों में तो पुरानी वासना ही भरी है। तुम परमात्मा से भी वही रहता है : कुछ और ! कुछ और! कुछ और!
मांग रहे हो जो तुमने संसार से मांगा था। तो तुम मुड़े तो जरूर, तृप्ति तो असंभव है, क्योंकि जो भी मिलेगा उससे ज्यादा शरीर तो मुड़ गया, एक सौ अस्सी डिग्री मुड़ गया लेकिन मिलने की कल्पना तो हम कर ही सकते हैं। जो भी मिल जायेगा आत्मा नहीं मुड़ी। उससे ज्यादा भी हो सकता है, इसकी वासना तो हम जगा ही यही अड़चन प्रश्नकर्ता को मालूम हो रही है : 'न मालूम कहां सकते हैं।
से कहां चला गया! चाहता था शक्ति, यहां समझने को मिली क्या तुम सोचते हो ऐसी कोई घड़ी हो सकती है वासना के शांति...।' इससे उलझन पैदा हो रही है। इससे उलझन जगत में, जहां तुम ज्यादा की कल्पना न कर सको? ऐसी तो सलझनी चाहिए। कोई घड़ी नहीं हो सकती। सारा संसार मिल जाए तो भी मन समझ को थोड़ा जगाओ! साफ-सुथरा करो! अगर शक्ति कहेगाः और चांद-तारे पड़े हैं!
| मिल जायेगी तो क्या करोगे? और शक्ति पाने में नियोजित कहते हैं, सिकंदर जब डायोजनीज को मिला तो डायोजनीज ने करोगे। लोग धन कमाते हैं, क्या करते हैं? और धन कमाने में एक बड़ा मजाक किया। उसने कहा, 'सिकंदर! यह भी तो लगाते हैं। और कमाकर क्या करेंगे? और कमाने में लगाते हैं। सोच कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा तो बड़ी मुश्किल में पड़ भोगोगे कब? जो मिलता है, उसे और आगे के लिये लगा देना जायेगा।' सिकंदर ने कहा, 'क्यों?' तो डायोजनीज ने कहा, पड़ता है। ऐसे जिंदगी हाथ से निकल जाती है। एक दिन मौत 'फिर इसके बाद दूसरी कोई दुनिया नहीं है।' और कहते हैं, यह | सामने खड़ी हो जाती है, जिसके आगे फिर कुछ भी नहीं है। तब सोचकर ही सिकंदर उदास हो गया। उसने कहा, 'मैंने इस पर तुम चौंकते हो, लेकिन तब बड़ी देर हो चुकी! कभी विचार नहीं किया। लेकिन तुम ठीक कहते हो। सारी | मेरे पास आने का एक ही उपयोग हो सकता है कि जो मौत दुनिया जीतकर फिर मैं क्या करूंगा! फिर तो वासना अधर में करेगी वह मैं तुम्हारे लिए अभी करूं। इसलिए तुम घबड़ाओगे। लटकी रह जायेगी। फिर तो अतृप्ति अधर में लटकी रह | इसलिए तुम भागोगे, बचोगे, तुम उपाय करोगे। जानता हूं, तुम जायेगी। फिर तो छाती पर अतृप्ति का पत्थर सदा के लिए रखा कुछ और खोजने आए हो। लेकिन तुम जो खोजने आए हो वह रह जायेगा। क्योंकि और तो कुछ पाने को नहीं है, लेकिन पाने | मैं तुम्हें नहीं दे सकता। वह देना तो तुम्हारी दुश्मनी होगी। मैं तो की आकांक्षा थोड़े ही समाप्त होती है।'
तुम्हें वही दे सकता हूं जो देना चाहिए। मैं तुम्हें शांति की दिशा में | तुम कुछ भी पा लो, कितनी ही शक्ति, कितनी ही प्रभुता, ही अग्रसर करूंगा। कितनी ही प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा-ज्यादा की कल्पना सदा _इसलिए एक महत्वपूर्ण बात समझ लेनी जरूरी है : शिष्य और संभव है। तुम तृप्त न हो पाओगे। तुम्हारी तिजोड़ी कितनी ही गुरु के बीच जो संबंध है वह बड़ा बेबूझ है! शिष्य कुछ और ही बड़ी हो, और भी बड़ी हो सकती है; उसमें कुछ जोड़ा जा सकता | मांगता है; गुरु कुछ और ही देता है। शिष्य जो मांगता है, अगर है। तुम्हारा सौंदर्य कितना ही हो, उसमें कुछ जोड़ा जा सकता। गुरु दे दे तो वह गुरु गुरु नहीं; वह दुश्मन है। गुरु जो देना
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