Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 592
________________ जिन सूत्र भाग 1 बाइबिल को माननेवाले की स्थिति है। बाइबिल को माननेवाला तुम चुन लेते हो; जो विपक्ष में पड़ता है, वह तुम छोड़ देते हो।। जब वेद पढ़ता है तो उसे लगता है, बस गांव के ग्रामीण गडरियों सत्य को जानने का यह ढंग न हुआ। यह तो असत्य में जीने के गीत हैं, इससे ज्यादा नहीं। जब वेद को माननेवाला | का ढंग हुआ। तो महावीर कहते हैं: आर्यसमाजी पंडित बाइबिल को पढ़ता है तो उसमें से कुछ भी सम्मदंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेस! सार नहीं पाता; उसमें से सब कचरा-कूड़ा इकट्ठा कर लेता है। । सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।। अगर तुम्हें इस दृष्टि की, पक्षपात से भरी दृष्टि की, जो सब नय-पक्षों से रहित है; जिसकी कोई धारणा नहीं, ठीक-ठीक उपमा चाहिए हो तो दयानंद का ग्रंथ 'सत्यार्थ मान्यता नहीं; जिसका कोई विश्वास-अविश्वास नहीं; जो नग्न प्रकाश' पढ़ना चाहिए। वह पक्षपात से भरी आंख का, उससे चित्त है; जो दिगंबर है; जिसके ऊपर कोई आवरण नहीं; ज्वलंत प्रमाण कहीं खोजना मुश्किल है। तो सभी में भूलें आकाश ही जिसका आवरण है; विराट ही जिसका आवरण है; निकाल ली हैं उन्होंने-और बेहूदी भूलें, जो कि निकालनेवाले इससे कम को जिसने स्वीकार नहीं किया है-ऐसा नग्न चित्त, के मन में छिपी हैं, जो कहीं भी नहीं हैं। लेकिन निकालनेवाला शांत मन, निष्पक्ष व्यक्ति-वही समयसार है। वह जान लेगा पहले से मानकर बैठा है। आत्मा का सारभूत, आत्मा का सत्य, उसे अस्तित्व की पहचान जो तुम मानकर बैठ जाते हो वह तुम खोज भी लोगे। अगर मिलेगी। वह अस्तित्व के मंदिर में प्रवेश पा सकेगा। पात्रता, तुम्हीं मानकर बैठे हो तो फिर मुश्किल है। तुमने जानने के पहले पक्षपात रहित हो जाना है। अगर धारणा तय कर रखी है, तो तुम सत्य को कभी भी न जान | ___ महावीर के पास लोग आते, प्रश्न पूछते, तो महावीर कहते, पाओगे; तुम सत्य को कभी मौका न दोगे कि तुम्हारे सामने प्रगट 'तुम कुछ पहले से ही मानते तो नहीं हो? अगर मानते हो तो हो जाये। बात व्यर्थ, फिर संवाद न हो सकेगा।' । मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने एक मित्र दर्जी से कपड़े बनवाये। जब कोई मानकर ही चलता है तो विवाद हो सकता है, संवाद जब वह कपड़े पहनने गया, उठाने गया, दर्जी ने उसे पहनाकर नहीं हो सकता। जब कुछ मानकर कोई भी नहीं चलता; जब बताया। उसे कपड़े जंचे नहीं; कुछ बेहूदे थे; कुछ अटपटे थे। कोई तैयार है सत्य के साथ जहां ले जाये; जब कोई इतना कछ शरीर पर बैठते भी न थे। लेकिन दर्जी प्रशंसा मारे जा रहा हिम्मतवर है कि सत्य जो दिखाएगा उसे स्वीकार था। वह गणगान किए जा रहा था। वह कह रहा था, 'देखो तो करूंगा तभी, महावीर कहते हैं, संवाद हो सकता है। तब जरा दाहिने आईने में! तुम्हारे मित्र भी तुम्हें पहचान न पायेंगे। महावीर कहते हैं, ज्यादा कुछ कहने को भी नहीं है। क्योंकि सत्य तुम्हारी पत्नी भी शायद ही तुमको पहचान पाए। इतने सुंदर को कहा तो नहीं जा सकता। मैं कुछ इशारे कर देता हूं, तुम मालूम हो रहे हो...! जरा तुम बाहर तो जाओ, जरा सड़क पर इनका पालन कर लो। इन इशारों के पालन करने से धीरे-धीरे चक्कर लगाकर आओ!' तुम्हें भी वही अनभव होने लगेगा जो मझे हो रहा है। जिस द्वार मुल्ला बाहर गया-संकोच से भरा हुआ; क्योंकि बड़ा से खड़े होकर मैं देख रहा हूं जीवन को, तुम भी देख सकोगे मेरे अटपटा-सा लग रहा था उसे उन कपड़ों में। जल्दी ही भीतर आ करीब आ जाओ। लेकिन अगर तुम मानते हो कि तुम्हें द्वार मिल गया। जब वह भीतर आया तो दर्जी, जो उसका पुराना मित्र, | ही गया है, तो फिर तुम मेरे करीब न आओगे और व्यर्थ बोला, 'आइये राजकपूर साहब! बहुत दिनों बाद आये!' खींचा-तानी होगी। अब दर्जी मानकर ही बैठा है कि गजब के कपड़े उसने सी दुनिया में जहां भी जितनी बातचीत हो रही है, तुम अगर गौर दिये! जो तुम मानकर बैठे हो, तुम उसे सिद्ध करने की चेष्टा में करोगे तो बातचीत तो कहीं मुश्किल से होती है। संवाद कहां लग जाते हो, जाने-अनजाने। तुम सब तरह से प्रमाण जुटाते है? विवाद है। चाहे प्रगट हो, चाहे अप्रगट हो। जब भी दो हो। विपरीत प्रमाणों को तुम देखते ही नहीं। तुम्हारी आंखें व्यक्ति बात करते हैं तो खुलते कहां हैं? अपनी-अपनी चेष्टा में चुनाव करने लगती हैं। जो पक्ष में पड़ता है तुम्हारे पक्ष के, वह रत रहते हैं। 582 Jal Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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