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मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत
भी तो कोई बड़ी अंतर्तम से उठी हुई प्रश्नावली है। कुछ जो नहीं प्रिय को देखना रह गया हो। कहा जा सकता, जिसे शायद वह खुद भी नहीं तय कर पाती कि हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बा, कैसे कहें, उसको खाली कागज में लिखकर भेज दिया है। अपने | कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए। शून्य को! आज उसने धन्यवाद दिया है। कुछ लिखा है। तुम्हारे उसे मैंने 'दर्शन' नाम दिया है। 'दर्शन' का अर्थ होता है: चरणों में शत-शत प्रणाम। उसके भीतर कुछ हो रहा है, वह 'हसरते-दीदार'; देखने की अभिलाषा। और उसकी देखने की बड़ी पीड़ा से गुजर रही है। पुराना संसार टूट रहा है। नये का अभिलाषा गहन होती चली गयी है। अब तो यहां बैठती भी है अभ्युदय हो रहा है। इन पीड़ा के क्षणों में अत्यंत जरूरी है कि तो आंखें बंद करके ही बैठती है। जैसे-जैसे देखने की अभिलाषा वह जो होने जा रहा है, उसके प्रति अहोभाव से भरी रहे। गहन होती है, वैसे-वैसे आंख भी बंद होने लगती है। क्योंकि अन्यथा, पुराना संसार काफी वजनी है! उसका जाल-जंजाल | आंख से तो वही देखा जा सकता है जो रूप है, आकार है, नाम गहरा है। उसमें बार-बार उतर जाने की, उलझ जाने की है। आंख बंद करके उसे देखा जा सकता है जो अरूप है, संभावना है! लेकिन उसके सौभाग्य से वह जाल खुद ही टूटा निराकार है, अनाम है। जा रहा है। वह जाल खुद ही पीछे हटा जा रहा है।
हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बा, सदा ही ऐसा होता है। जिस दिन तुम तैयार हो, उसी दिन कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए। संसार तुम्हें छोड़ने को तैयार हो जाता है। तुम लाख कहते हो कि और 'दर्शन' की जिंदगी अब उस दिशा में प्रवाहित हो रही है, क्या करें, कैसे छोड़ें, संसार नहीं छोड़ रहा है। गलत कहते हो। | उसकी नाव, जहां उस परम प्यारे के सिवाय कोई और न बचेगा। जिस दिन तुम छोड़ना चाहते हो, उस दिन संसार क्षणभर को नहीं कठिन होगी यात्रा! सब छूटेगा। लेकिन सब छूटने के मूल्य पकड़ता है, क्योंकि संसार ने तुम्हें कभी पकड़ा ही न था। इधर पर ही सब मिलता है। एक ही बात खयाल रखनातुम छोड़ने लगे, उधर संसार अपने आप छोड़ने लगता है। हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल
ऐसी ही घड़ी से वह गुजर रही है। ऐसी घड़ी में प्रणाम करने का जहां वह हुस्न-लामहदूद हो, ऐ दिल! वहीं ले चल। खयाल, सौभाग्य है क्योंकि ऐसे समय में तो शिकायत करने का -जहां वह परम सौंदर्य हो, अब वहीं चलेंगे! मन होता है। अगर वह शिकायत लिख भेजती आज तो मैं हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल समझता कि ठीक था, तर्कयुक्त था; क्योंकि पीड़ा से गुजर रही -मंदिर हो, मस्जिद हो, काबा हो, काशी हो, कुछ भी हो। है, घनी पीड़ा से गुजर रही है। आज वह मुझ पर नाराज होती तो हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल समझ में आनेवाली बात थी। क्योंकि यह बिलकुल स्वाभाविक जहां वह हुस्न-लामहदूद हो, ऐ दिल! वहीं ले चल! है कि जब पीड़ा से कोई गुजरे तो कहीं न कहीं, किसी न किसी को जहां वह असीम सौंदर्य हो! जहां उस परम प्रिय का दर्शन हो! दोष दे। और मुझसे ज्यादा करीब उसके कोई भी नहीं। तो जो भी उसके लिए सब निछावर करने की तैयारी रखना। वह करीब हो, उसी को हम दोष देते हैं। .
| आखिरी दम तक परीक्षा लेता है। वह आखिरी-आखिरी घड़ी आज इस दुख की घड़ी में स्वाभाविक था कि वह कहती कि | तक परीक्षा लेता है। आखिरी-आखिरी घड़ी तक पीड़ा देता है! 'तुम्हीं' ने सब खराब कर दिया। सब उजड़ गया! सब धागे | लेकिन जो उस पीड़ा से गुजर जाता है, वह उस महापात्रता को
टे जा रहे हैं। लेकिन इस घड़ी में उसका चरणों में प्रणाम भेजना उपलब्ध हो जाता है-जहां तुम्हें परमात्मा को खोजने नहीं जाना बहुत बहुमूल्य है। इस किरण के सहारे ही वह पार हो जायेगी। पड़ता, परमात्मा तुम्हें खोजता आता है! हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बा,
और अगर, अहोभाव हो तो घड़ी दूर नहीं। शिकायत से लोग कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए।
दूर होते हैं परमात्मा से; धन्यवाद से पास होते हैं। जितना हजारों सूरज भी उसकी आंखों पर कुर्बान हैं; उसकी देखने की धन्यवाद गहन होता जाता है उतनी दूरी कम होती जाती है। अगर अभिलाषा पर कुर्बान हैं जिसके जीवन का लक्ष्य ही उस परम | अहोभाव परिपूर्ण हो जाये तो दूरी समाप्त हो जाती है। अहोभाव
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