Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 551
________________ । दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष भी रह जाते हैं। असत्य गिरता है; सत्य तो-जो शेष रह जाता है, असत्य के तो जब तक कोई ज्ञान तुम्हारी श्रद्धा न बन जाये, जब तक हृदय गिर जाने पर जो शेष रह जाता है, तुम्हारा स्वभाव, वही सत्य है। की भूमि में कोई बीज न पड़े, जब तक तुम्हारी दृष्टि में कोई बात इसलिए महावीर कहते हैं, चरित्र से सिर्फ निरोध होता है, सत्य की तरह अनुभव में न आ जाये तब तक चारित्र्य का, नकार होता है, व्यर्थ छूट जाता है। सार्थक तो है ही भीतर, व्यर्थ चरित्र का, आचरण का कोई रूपांतरण नहीं होता। हां, तुम से जुड़ गया है। सार्थक को लाना नहीं है। आयोजन करके, चेष्टा करके रूपांतरण कर सकते हो। बहुतों ने यही किया है। निमंत्रण देकर, अभ्यास करके लाना नहीं है सिर्फ व्यर्थ को ज्ञान से सीधा चरित्र निर्मित किया जा सकता है लेकिन वही देख लेना है। व्यर्थ को व्यर्थ की तरह देख लेना पर्याप्त है। व्यर्थ चरित्र पाखंडी, हिपोक्रेट का चरित्र है। जो ज्ञान से सीधा चरित्र व्यर्थ की तरह दिखा कि हाथ से छूटा, गिरा। फिर तुम उसे दुबारा पर चला गया, वह अपने ऊपर एक तरह का आरोपण कर न उठा सकोगे। और तुम जो उसके बिना रह जाओगे, वही सत्य लेगा। वह सत्य बोलेगा, लेकिन झूठ से उसकी मुक्ति न होगी। है, वही स्वभाव है। वह तुम सदा से थे। झूठ भीतर-भीतर उबलेगा, सत्य ऊपर-ऊपर थोपेगा। वह इसका अर्थ यह हुआ कि तुम ठीक तो हो ही, कुछ गलत से अहिंसक हो जायेगा, लेकिन हिंसा भीतर दावानल की तरह तुम्हारा संबंध जुड़ गया है। ठीक होना तो सदा से ही है; गलत जलती रहेगी। वह ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेगा, लेकिन कामवासना से संबंध जुड़ गया है। गलत से संबंध छूट जाये, तुम ठीक तो थे रोएं-रोएं में मौजूद रहेगी। उसके व्रत ऊपर-ऊपर होंगे; जैसे ही। ऐसा नहीं है कि तुम गलत हो गए हो और तुम्हें ठीक होना वस्त्र हैं ऐसे होंगे; हड्डी, मांस, मज्जा न बनेंगे। है; ऐसा ही है कि सोने के ऊपर मिट्टी की तह बैठ गयी, धूल जम जब ज्ञान श्रद्धा के माध्यम से गुजरकर चरित्र तक पहुंचता है, गयी, दर्पण के ऊपर धूल बैठ गयी-बस धूल को हटा देना है, तब सम्यक चारित्र्य पैदा होता है। पोंछ देना है; दर्पण तो दर्पण है ही। धूल के भीतर शुद्ध दर्पण चरित्र से, जो व्यर्थ है उसका निरोध हो जाता है। चरित्र का मौजूद है। धूल ने दर्पण को खराब थोड़े ही किया है! धूल से इतना ही अर्थ है। महावीर के हिसाब से चरित्र का अर्थ है : व्यर्थ दर्पण नष्ट थोड़े ही हुआ है ! ढंक गया है-उघाड़ना है। का निरोध। इसे खयाल में लेना, क्योंकि महावीर की। इसलिए महावीर के लिए आत्मा एक आविष्कार है। सिर्फ नकारात्मक दृष्टि का बुनियादी हिस्सा है। महावीर यह नहीं | उघाड़ना है। जैसे राख में अंगारा छिपा हो-फूंक मारी, राख कहते कि तुम्हें ब्रह्मचर्य आरोपित करना है। ब्रह्मचर्य तो आत्मा गिर गयी, अंगारा रह गया। ऐसे ही दृष्टि की फूंक जब लग जाती का स्वभाव है; आरोपित करना नहीं। आरोपित तो इसलिए है, राख झड़ जाती है; जो शेष रह जाता है, वही चरित्र है। करना पड़ता है कि श्रद्धा से कभी वासना का सत्य, वासना की 'चरित्र से निरोध होता है और तप से विशुद्धि होती है।' व्यर्थता तुम्हें दिखायी नहीं पड़ी। सुना किसी को, ब्रह्मचर्य की | तप का मैंने तुम्हें कल अर्थ कहा, वह खयाल रखना। तप का बातें मधुर लगी, तुम्हारे अनुभव से भी थोड़ी मेल खाती लगीं। अर्थ है : जो दुख आयें उन्हें चुपचाप, बिना ना-नुच किये, बिना जीवन के दुख से भी तुम ऊब गये हो, परेशान हो गये हो। तो अस्वीकार किए स्वीकार कर लेना। लगा कि ठीक ही है, उचित ही है। ऐसा उचित मानकर तुमने तप का भी अर्थ इतना ही है कि पिछले-पिछले जन्मों में, दूर ब्रह्मचर्य आरोपण करना शुरू किया। तो ब्रह्मचर्य को विधायक की लंबी यात्रा में, हमने जो दुख के बीज बोए थे उनके फल पक रूप से आरोपित करना होगा, पाजिटिव रूप से आरोपित करना गये हैं। उन्हें कौन भोगेगा? उन्हें भोगना ही होगा। तो जिसे होगा। तुम्हें चेष्टा करके ब्रह्मचारी बनना होगा। भोगना ही है, उसे दुख से भोगना गलत है। जिसे भोगना ही है महावीर का कहना यह है, अगर तुम्हें दिखायी पड़ गया कि उसे सहज स्वभाव से, सरलता से, शांति से भोग लेना उचित वासना व्यर्थ है तो ब्रह्मचर्य आरोपित नहीं करना पड़ता; वासना है। क्योंकि अगर तुमने उसे दुख से भोगा तो तुमने फिर दुख के गिर जाती है, जो शेष रह जाता है वही ब्रह्मचर्य। इस भेद को बीज बोये। तुमने प्रतिक्रिया की। तुम कहते रहे कि चाहता नहीं खूब गहराई से समझ लेना। था, यह क्या हो रहा है? इनकार करते रहे। तो तुमने चाह की 541 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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