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जिन सूत्र भाग: 1
जंगल में आग लगी हो और एक अंधा आदमी हो जंगल में, वह दौड़ सकता है; लेकिन उसे दिखायी नहीं पड़ता कि आग कहां है, लपटें कहां हैं। वह दौड़कर भी जल मरता है। और एक लंगड़ा हो, उसे दिखायी पड़ता है कि आग कहां लगी है, कहां से भागूं, कहा से निकलूं; लेकिन पैर नहीं हैं, तो भी जल मरता है। जिस व्यक्ति के पास ज्ञान तो है, लेकिन आचरण नहीं, वह जल मरेगा। वह लंगड़ा है। जिस व्यक्ति के पास आचरण तो है, लेकिन बोध नहीं, वह भी जल मरेगा। उसके पास पैर तो थे, लेकिन आंख नहीं है।
असमर्थ होने से जल मरता है... और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी न निकल सकेंगे। और जिनके पास ज्ञान है लेकिन चरित्र नहीं, वे देखने में असमर्थ होने से जल मरता है।' भी न निकल सकेंगे। तुम्हारे भीतर एक रसायन घटे, एक अल्केमिकल परिवर्तन हो, एक कीमिया से तुम गुजर जाओ कि तुम्हारा ज्ञान दर्शन बने, तुम्हारी आंख बन जाये और तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा चरित्र बन जाये। दो तरफ ज्ञान में घटनाएं घटें, एक तरफ ज्ञान दर्शन बने और दूसरी तरफ ज्ञान चरित्र बने, तो पक्षी के दोनों पंख उपलब्ध हो गए। अब तुम उड़ सकते हो इस विराट के आकाश में ।
'कहा जाता है कि ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है; जैसे कि वन में पंगु और अंधे के मिलने पर पारस्परिक संप्रयोग से वन से निकलकर दोनों नगर में प्रविष्ट हो जाते हैं। एक पहिए से रथ नहीं चलता।' पातो पंगुलो ड्डो, धावमाणो य अंधओ ।
अंधा भी मर जाता है। पैर थे, बच सकता था। पंगु भी मर
जाता है। आंखें थीं, बच सकता था।
लेकिन दोनों का मिलन चाहिए।
संजो असिद्धीइ फलं वयंति, न हु एग चक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा ।। अगर दोनों साथ हो जाएं, अगर अंधा और लंगड़ा एक | समझौते पर आ जायें, एक मैत्री कर लें, एक संबंध बना - संबंध कि लंगड़ा कहे कि मुझे तुम अपने कंधों पर बिठा लो, ताकि मैं तुम्हारी आंख का काम करने लगूं; संबंध कि अंधा कहे, तुम मेरे कंधों पर बैठ जाओ, ताकि मैं तुम्हारे पैर बन जाऊं ।
और लंगड़ा उस वन में जहां आग लगी है, बचकर निकल सकते हैं अगर एक व्यक्ति हो जायें, अगर दो न रहें। अगर लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाये, अंधे के लिए देखे और अंधा लंगड़े के लिए चले, दोनों जुड़ जायें, यह संयोग अगर बैठ जाये, तो बचकर निकल सकते हैं, तो सोने में सुगंध आ जाये ।
महावीर कहते हैं, एक पहिये से रथ नहीं चलता। और ऐसी ही व्यक्ति के जीवन की दशा है। जीवन में तो आग लगी है। यह जीवन का वन तो जल रहा है। इससे निकलने का उपाय? अकेला जिनके पास चरित्र है और जिनके पास बोध नहीं, वे भी
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अंधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है ? कल्पना के हाथ से
कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ से जिसमें वितानों को तना था, स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से संवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर
ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ? है अंधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
जिस दिन तुम दर्शन को उपलब्ध होओगे, उस दिन तुम्हारा पुराना भवन - सपनों का, स्वर्ग के रंगों का, इंद्रधनुषों का गिरेगा-धूल में गिरेगा। खंडहर भी न बचेंगे! क्योंकि सपने के कहीं कोई खंडहर बचते हैं! बस तिरोहित हो जायेगा, जैसे कभी न था। हाथ में राख भी न रह जायेगी।
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दर्शन को उपलब्ध होते ही, जीवन को गौर से देखते ही एक बात साफ हो जाती है कि जीवन है, तुम हो और बीच में तुमने जो सपने बनाए थे वे झूठे थे । वे तुम्हारी मूर्च्छा से उठे थे। वे तुम्हारी बंद आंखों से उठे थे। जैसे सुबह एक आदमी जागता है, आंख खोलता है— सारे सपने तिरोहित हो गए।
दर्शन का अर्थ है, ऐसे ही तुम जीवन के प्रति आंख खोलो,
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