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जिन सूत्र भाग: 1
कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया। मिलन की रात की कशमकश न पूछ और यह मत पूछ कि कैसे सुबह हुई ! बड़ी मुश्किल हुई। कभी एक चिराग जला लिया, फिर बुझा दिया, फिर जला लिया, फिर बुझा दिया ! ऐसी उधेड़-बुन हुई।
शबे-इंतजार की कशमकश न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया। ऐसी कशमकश आएगी। घबड़ाना मत। बस एक ही खयाल रखना कि जो भी हो रहा है, जो भी होता है- शुभ है। यही तुम्हारी प्रार्थना हो अब कि जो भी हो रहा है, शुभ है। और तब शुभ के नये-नये द्वार खुलते जायेंगे ।
दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर, सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं।
इस चिंता में मत पड़ना क्योंकि अब जल्दी ही दिल के पास जो परमात्मा का रास्ता गुजरता है वह दिखायी पड़ेगा । सोच-विचार में मत पड़ना । जब सब सन्नाटा हो जाता है, उत्सव भी चला जाता है, आनंद भी चला जाता है और सब शांत हो जाता है और आदमी ठगाठगा रह जाता है— तभी हृदय के पास से जिसका रास्ता गुजरता है उसके दर्शन होते हैं ! हम अपने करीब आये, असंग हुए, निसंग हुए ! यही संन्यास की पराकाष्ठा है। संसार और बाहर का सब भूल गया! भीतर, भीतर, भीतर उतरते गये! अपने केंद्र पर आये ! वहां से गुजरती है राह परमात्मा की ! तब संदेह में मत पड़ जाना क्योंकि ये मन में विचार, आखिरी विचार यही आता है कि कहीं यह रास्ता सही है कि गलत ।
दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर, सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं।
यह मत सोचना। यह विचार करना ही मत । अब तो विचार को पूरा का पूरा ही त्याग दो। अब तो निर्विचार हो रहो। और जो भी हो, उसको स्वीकार करते जाओ। धीरे-धीरे उसी रास्ते पर उसका रथ भी आयेगा । और जब वह रथ से उतरे और तुम्हारे सामने अपनी झोली फैला दे तो कंजूसी मत करना । सब डाल देना ! स्वाहा ! सब डाल देना !
रवींद्रनाथ का एक गीत है । एक भिखारी सुबह - सुबह उठा। अपनी झोली को कंधे पर टांगकर भीख मांगने निकला। जैसा कि भिखारी करते हैं, उसने भी किया। थोड़े से चावल के दाने
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अपनी झोली में घर से डाल लिए। देनेवालों के लिए थोड़ी हिम्मत होती है कि चलो इसको औरों ने भी दिया है। तो भिखारी थोड़े-से पैसे अपनी थाली में डालकर बैठ जाता है। तो निकलनेवाले को थोड़ा साहस रहता है कि कोई हम ही नहीं फंस रहे हैं, और लोगों ने भी दिया है। तो थोड़ी लज्जत भी आती है, तो थोड़ी लज्जा भी लगती है, थोड़ा शर्म भी, संकोच भी लगता है कि अब और दे चुके हैं तो हम कोई इतने गये-बीते तो नहीं, चलो एक पैसा दे दो! तो थोड़े-से चावल के दाने डालकर झोली में भिखारी चला। राह पर आया, कभी सोचा भी न था । सपना भी न देखा था - राह पर आ रहा है उस महाराजा का रथ - स्वर्ण रथ, सूर्य की किरणों में चमकता हुआ ! उसने सोचा, आज मेरे धन्यभाग, आज मेरे भाग्य खुल गये ! आज तो झोली पसार दूंगा और मांग लूंगा। अब राजा ही सामने आ रहा है, द्वार से कभी भीतर जाने का मौका मिलता न था । द्वारपाल द्वार से ही भगा देते थे। अब आप तो रास्ते पर मिल गये ।
तो वह बीच में खड़ा हो गया। रथ रुका। राजा न केवल उसे अपने पास बुलाया, खुद उतरकर नीचे आया। लेकिन राजा को पास देखकर वह घबड़ा गया। कभी राजा की सन्निधि नहीं की। याद ही न रही, अवाक ठगा रह गया। देखता रहा राजा के मुंह की तरफ। और इसके पहले कि वह अपनी झोली फैलाये, राजा ने अपनी झोली फैला दी। और उसने कहा, मना मत करना, इनकार मत करना, क्योंकि मेरे ज्योतिषियों ने कहा है कि आज मैं भीख मागूं तो राज्य बचेगा, अन्यथा राज्य पर खतरा है।
अब कठिनाई हम सोच सकते हैं: भिखारी जिसने कभी दिया नहीं, सदा मांगा ! देने की कोई आदत ही नहीं । देने का कोई संस्कार ही नहीं। वह बहुत घबड़ाया, लेकिन अब इनकार भी न कर सका, क्योंकि राजा ने कहा, 'इनकार मत करना, पूरे राज्य पर खतरा है। कुछ भी दे दो, उसने हाथ भीतर डाला झोली के। मुट्ठी बांधता है, खोलता है। कभी दिया तो है नहीं, देने की आदत ही नहीं। बामुश्किल एक चावल का दाना निकालकर उसने राजा की झोली में डाल दिया। रथ आया गया हो गया, धूल उड़ती रह गयी ! वह तो खड़ा रह गया। उसने कहा, 'यह तो हद्द हो गयी। और गरीब कर गया! एक दाना और पास था, वह भी ले गया !'
फिर सांझ घर लौटा भीख मांगकर । उस दिन खूब भीख
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