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जिन सूत्र भाग: 1
लेकिन महावीर कहेंगे, यह सारा खेल तो कल्पना का है। यह राग का ही है। इसमें तो दूसरा अभी भी मौजूद है। माना कि शुद्ध हुआ, शुभ हुआ, किसी को हानि नहीं हो रही है इससे, लाभ ही हो रहा है - लेकिन फिर भी, जहां तक लाभ हो रहा है वहां तक हानि भी जुड़ी है। इसके भी पार जाना है।
महावीर के लिए भाव भी बंधन है। इसलिए महावीर का मार्ग शुद्ध निर्भाव का मार्ग है। जैन भी जैन मंदिरों में जो कर रहे हैं, महावीर लौटें तो नाराज होंगे। कहेंगे, 'तुम यह क्या कर रहे हो ? यही सब तो मैंने मना किया था।' महावीर की ही मूर्ति के सामने बैठे हैं साजशृंगार लगाकर, कि हे प्रभु! महावीर से ही बातें चल रही हैं। महावीर से बात चलाने का उपाय नहीं है। अगर महावीर की मानते हो, अगर महावीर के मार्ग को शुद्ध रखना है, तो महावीर से बातें चलाने का उपाय नहीं है। सच तो पूजा भी जैन धर्म में संभव नहीं हो सकती; प्रार्थना की कोई गुंजाइश नहीं है; भक्ति का कोई मार्ग नहीं है। लेकिन मंदिर बनते हैं, पूजा होती है, प्रतिमा खड़ी होती है ।
बात असल ऐसी है कि जिन्हें भक्त होना चाहिए था, वह अगर जैन घरों में पैदा हो जाते हैं तो वह क्या करें! खुद तो भक्त होने का उपाय नहीं है, महावीर को ही भ्रष्ट कर लेते हैं।
दुनिया के सभी धर्म भ्रष्ट हो गये हैं, संकर हो गये हैं; क्योंकि लोग जन्मों के कारण धर्मों में हैं। और यह बड़ी खतरनाक बात है। मैं तो चाहूंगा, महावीर का धर्म शुद्ध हो। क्योंकि शुद्ध हो तो कुछ थोड़े-से लोग जो संकल्प से पहुंच सकते हैं, उनका रास्ता सीधा-साफ हो। लेकिन वह शुद्ध तभी हो सकता है, जब लोग उसे स्वयं चुनें, जन्म के कारण धर्म आरोपित न हो। तो कृष्ण के मार्ग पर ऐसे लोग मिल जायेंगे जिनको महावीर के मार्ग पर होना चाहिए था। वे वहां सब खराब कर रहे हैं । वे प्रार्थना भी करते हैं, लेकिन उनको आंसू नहीं बहते । वे कहते हैं, 'कैसे प्रार्थना करें, हृदय में कोई रसधार आती ही नहीं!' इधर महावीर के मार्ग पर ऐसे लोग हैं जो कृष्ण के मार्ग पर होते तो सुगमता से पहुंच जाते। उनकी आंखें लबालब भरी हैं। उनकी प्याली छलकी जा रही है। लेकिन महावीर के वचन हैं कि राग का अंश है भक्ति, तो रोके हुए हैं। आंसुओं को सुखाने की कोशिश कर रहे हैं। अड़चन पैदा होती है अगर तुम अपने से विपरीत चले गये। किसी ने पीछे पूछा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम
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समर्पण और संकल्प में समन्वय स्थापित कर लें ? वही तो तुमने किया है। हो सकता है, यह सवाल ही नहीं है - वही हुआ है। लेकिन समन्वय हो नहीं सकता। सिर्फ समझौता हो जाता है। तो तुम दोनों बातों का तालमेल बिठा लेते हो। लेकिन उस तालमेल बिठालने में दोनों मार्ग भ्रष्ट हो जाते हैं।
ऐसा ही समझो, बैलगाड़ी से कोई यात्रा करता है, कोई कार से यात्रा करता है, कोई रेलगाड़ी से, कोई हवाई जहाज से - सब पहुंच जाते हैं। सबके मार्ग अलग हैं। रेलगाड़ी रेल की पटरियों पर दौड़ती है। बैलगाड़ी को पटरियों पर दौड़ने की कोई जरूरत नहीं है, ऊबड़-खाबड़ जंगली पथ भी गुजर जाती है। कार वहां से न गुजर सकेगी। अब ये सब रास्ते और ये सब वाहन ठीक हैं। लेकिन तुमने अगर कहा, समन्वय स्थापित कर लें कि चलो बैलों को लेकर कार में जोत दें, कि कार का इंजिन बैलगाड़ी में रख दें, कि रेल के चक्के बैलगाड़ी में ठोक दें और बैलगाड़ी के चक्के रेल में ठोक दें – तो समन्वय स्थापित नहीं होगा सिर्फ इतना ही होगा कि कोई भी वाहन चलाने में, पहुंचाने में समर्थन रह जायेगा। यह समन्वय नहीं हुआ। यह तुमने रास्ते ही खराब कर लिए, वाहन ही नष्ट कर दिए।
प्रत्येक मार्ग पर सुनिश्चित चिह्न हैं और प्रत्येक मार्ग की अपनी सुनिश्चित दिशा है। तो जब मैं महावीर के मार्ग पर बोल रहा हूं तो तुम खयाल रखना: मैं चाहता हूं कि शुद्ध महावीर की बात तुम्हारी समझ में आ जाये; फिर जिसको वह यात्रा सुगम मालूम पड़े वह चल सके। वहां भक्ति को भूल ही जाना। वहां सूफियों से कुछ लेना-देना नहीं। वहां तो तुम शुद्ध निर्भाव होने की चेष्टा करना, क्योंकि वही निर्भाव ही वहां गाड़ी का चाक है।
लेकिन अकसर लोग ऐसा करते हैं: महावीर के मार्ग पर भाव ले आयेंगे और जब नारद को पढ़ेंगे तब उनकी बुद्धि में निर्भाव उठने लगेगा। ये तरकीबें हैं न पहुंचने की ये बहाने हैं ताकि तुम पहुंच न पाओ । ऐसे उलझाव खड़े करते हो ।
अंततः समन्वय है, लेकिन वह है गंतव्य पर पहुंचकर । जहां से मैं खड़े होकर देख रहा हूं, वे सभी रास्ते यहीं आ जाते हैं। लेकिन हर रास्ते की व्यवस्था अलग है। कोई पहाड़ से गुजरता है, कोई रेगिस्तानों से गुजरता है, कोई हरियाली से भरे उपवन से गुजरता है। किसी रास्ते पर कोयल की कुहू कुहू है और किसी रास्ते पर बिलकुल सन्नाटा है, पक्षी हैं ही नहीं ।
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