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सोता, बल्कि घुर्राता भी । तो उससे और चर्च के लोगों को भी अड़चन होती। उससे कुछ कहा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि वह करोड़पति था और उसके दान पर चर्च चलता था । उसे यह भी नहीं बताया जा सकता कि तुम घुर्राते हो ।
तो पादरी ने एक तरकीब खोज ली। उसके साथ एक छोटा बच्चा भी आता था, उसका वह नाती-पोता। उसने छोटे बच्चे को एक दिन बुलाया और कहा कि देख तू अपने दादा को जब वे घुर्राने लगें, हिला दिया कर । मैं तुझे चार आने दिया करूंगा रोज। उसने कहा, ठीक! तो वह बच्चा, जब भी उसका दादा घुर्राने लगता, उसको तो बच्चे को कोई मतलब भी नहीं था प्रवचन से, वह अपने दादा ही पर नजर रखता, उनको हिला देता। ऐसा दो-तीन दिन तो चला, लेकिन चौथे दिन देखा कि बच्चे ने हिलाया नहीं। तो, पादरी ने उसे बुलाया कि क्यों, क्या हुआ? उसने कहा, मेरे दादा ने कहा कि देख, अगर तू मुझे नहीं हिलायेगा तो मैं एक रुपया...। अब आप सोच लो उसने कहा, रुपया मिल रहा है!
अगर पहली ऐसी दशा हो तो कोई जरूरत नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। जाना क्यों ऐसी जगह जहां नींद आती हो ? घर ही सोया जा सकता है, सुगमता से, सुविधा से। यहां बैठकर सख्त पत्थर पर, नींद भी मुश्किल होती होगी। तुम तोट दोगे, पाप मुझको भी लगेगा।
'संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में जीती रही कि मैं संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन थे।'
भ्रम के दिन सदा ही सुख और आनंद के दिन होते हैं। लेकिन भ्रम के साथ एक ही खतरा है कि वह सदा नहीं चल सकता; वह एक दिन टूटता ही है। और जब टूटता है तो पीड़ा होती है । लेकिन उसका टूट जाना शुभ है। और अब जब मैं कह रहा हूं कि संन्यास केवल लेने की बात नहीं है... लेने से तो शुरुआत होती है, अंत नहीं। संन्यासी बनने का जब तुम निर्णय करते हो, संकल्प करते हो, समर्पण करते हो, तो वह तो यात्रा का पहला कदम है। वहीं बैठकर प्रसन्न मत होते रहना। नहीं तो मंजिल कभी घर न आयेगी; तुम कभी मंजिल तक न पहुंचोगे । उचित है कि पहला कदम भी उठाया। यह भी सौभाग्य था । इसके लिए गुनगुनाना, गीत गाना, नाच लेना, प्रसन्न होना; लेकिन यात्रा जारी रखनी है। आगे जाना है! रोज आगे जाना है। और जितने तुम आगे जाने लगोगे, उतने मैं तुम्हें और आगे की यात्रा के इशारे देने लगूंगा ।
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अगर दूसरी तरह की नींद हो तो फिर कोई फिक्र नहीं। फिर अपने को जगाने की कोशिश करना। अगर दूसरी तरह की नींद हो कि मन की पुरानी आदत के कारण आ जाती हो, तो मन की आदतें तो तोड़नी हैं, उनसे तो संघर्ष करना होगा । और जब पहली और दूसरी तरह की नींद विदा हो जायेगी तो तीसरी तरह की नींद की संभावना शुरू होती है। और जब तीसरी आ जाये तो डरना मत फिर उसमें लीन होना, डूबना ।
तो पहले तुमसे कहता हूं, संन्यास सिर्फ एक भाव-भंगिमा है। वह तो तुम्हें फुसलाने के लिए। वह तो तुम्हें राजी कर लेने के लिए। तुमसे कहता हूं, यहीं पास रहा, दो कदम जाना है। जब तुम दो कदम उठा लेते हो, तब मैं कहता हूं कि अब दो कदम और । ऐसे दो-दो कदम तुम्हें बढ़ाकर हजारों कदम उठवाये जा सकते हैं। अगर मैं तुमसे कहूं हजार कदम पहले से, तो शायद तुम पहला कदम भी न उठाओ।
तुमने हिम्मत इतनी खो दी है, आत्मविश्वास इतना खो दिया है। तुम बड़ी क्षुद्र बातों से प्रभावित होते हो । हजार कदम, तो शायद हजार कदम की बात रुकावट ही बन जाये। इसलिए मैंने संन्यास को इतना सरल बना दिया है जितना सरल हो सकता है। सिर्फ संन्यास लेने की आकांक्षा को मैं कहता हूं काफी है, बस, और कोई पात्रता नहीं। लेकिन एक बार तुम संन्यासी होने का पहला कदम उठाये, तो यात्रा शुरू हुई। फिर मैं पात्रता की बात भी करूंगा। फिर कैसे जीवन के फूल खिलें, उनकी दिशा में तुम्हें संलग्न भी करूंगा । और एक बार तुम मेरे साथ आ गये, चल
आखिरी प्रश्नः संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में जीती रही कि मैं संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन थे। किंतु अब जो आप संन्यास के फूल की बात करते हैं तो मैं अपने को बहुत अयोग्य पाती हूं। जमीन से पैर उखड़ गये, लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे। यह कैसी अवस्था है कि एक ओर कीर्तन, नाच और भक्ति में लीन होती हूं, तो दूसरी ओर
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परमात्मा के मंदिर का द्वार प्रेम
ध्यान और होश भी पकड़ता है। और यह संसार ... उफ... कब तक चलेगा?
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