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जिन सूत्र भाग 1
है-करोगे भी क्या? जीवन तो इन्हीं छोटी-छोटी चीजों से | और अशभ परिणाम पाप है। फिर धर्म क्या है? धर्म पाप और मिलकर बना है। लकड़ी भी काटोगे, पानी भी भरकर लाओगे, पुण्य से मुक्ति है-न दिया और न छीना। धर्म अनन्यगत, दूसरे घर में बुहारी लगाओगे, खाना बनाओगे, कपड़े धोओगे, स्नान से मुक्त हो जाना है। करोगे, भोजन करोगे, सोओगे, उठोगे, बैठोगे, चलोगे-जीवन | 'अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुखों के इन्हीं छोटे-छोटे अणुओं से बना है।
क्षय का कारण होता है।' लेकिन फर्क एक आ जायेगा।
ये महावीर के मूल आधार-सूत्र हैं, 'स्व-द्रव्य में प्रवृत्त कृत्य भव्य हो जाता है जब उसमें कोई तृष्णा नहीं होती। जैसे | परिणाम!' ये उनके पारिभाषिक शब्द हैं। ही तृष्णा से छूटा कि कृत्य पवित्र हुआ।
जो अपने में ही रमण कर रहा है... लेकिन हम तो ऐसे उलझ गये हैं तृष्णा में कि कभी-कभी जहां तुम बैठे हो, कुछ भी नहीं कर रहे हो, सिर्फ बैठे हो : अपने में उलझे हैं वहां से भाग भी खड़े होते हैं तो और सब तो छोड़ ही रमण हो रहा है! तुम अपने में ही डूबे हो, लीन हो, तल्लीन जाते हैं लेकिन तष्णा हमारे साथ चली जाती है।
हो। मन कहीं जा ही नहीं रहा है। न भविष्य में जा रहा है, न ये न जाना था इस महफिल में दिल रह जायेगा
दूसरे में जा रहा है। क्योंकि दूसरे में भी जाना भविष्य में जाना हम ये समझे थे चले आयेंगे दमभर देखकर।
है। तुम दूसरे का कोई चिंतन ही नहीं कर रहे-सारा चिंतन रुक लेकिन लगाव कुछ ऐसा बन जाता है कि दिल महफिल में रह गया है। तुम विचार ही नहीं कर रहे हो, क्योंकि सभी विचार जाता है और महफिल दिल में समा जाती है। फिर तुम भागते दुसरे के हैं। तुम सिर्फ हो। फिरते हो, लेकिन कुछ अंतर नहीं पड़ता। तुम जहां जाते हो फिर यह स्व-द्रव्य में होना-तुम मात्र हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। वहां एक संसार खड़ा हो जाता है, क्योंकि संसार का जो तुम कोई संबंध निर्मित नहीं कर रहे। तुम कोई सेतु नहीं बना रहे। 'ब्लू-प्रिंट' है, उसका जो बुनियादी नक्शा है, वह तुम्हारी तृष्णा दूसरे के पास जाने की कोई आकांक्षा नहीं। दूसरे से दूर जाने की
भी कोई आकांक्षा नहीं। दूसरा तुम्हारी कल्पना के लोक में है ही 'वह अभव्य जीव नहीं जानता कि पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ नहीं। बस अकेले तुम अपने से भरे हो! अपने से भरपूर, परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। धर्म अनन्यगत लबालब, कहीं जाते हुए नहीं! तरंग भी नहीं, लहर भी नहीं। अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुःखों के क्योंकि लहर भी कहीं जाती है। तुम बस यहीं हो। ऐसी घड़ी को क्षय का कारण होता है।'
| महावीर कहते हैं धर्म। 'पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है।' पुण्य की लहर उठी-और अगर लहर दूसरे के हित में हुई तो पुण्य, परिभाषा महावीर कर रहे हैं। दूसरे के साथ शुभ परिणाम का अहित में हुई तो पाप। लहर ही न उठी, तुम स्व-द्रव्य में लीन संबंध पुण्य है। अन्य के साथ शुभ परिणाम का संबंध पुण्य है। | बैठे रहे तो धर्म। तो धर्म पुण्य और पाप के पार है।
तुमने किसी को दान दिया-एक संबंध निर्मित हुआ। लेकिन जो पुण्य और पाप के पार है उसका भविष्य नहीं हो सकता। पण्य का संबंध है-तमने दिया। तमने किसी से छीन लिया, तुम अपने में तो बस अभी और यहीं हो सकते हो—यही वर्तमान चोरी की, तो फिर एक संबंध बना-तुमने किसी से छीना! दोनों | के क्षण में। तुम अपनी आत्म-सत्ता का अनुभव कर सकते हो, अलग-अलग हैं। किसी को दिया-छीनने से बिलकुल उलटा क्योंकि सत्ता उपलब्ध ही है। उसके लिए कल तक रुकने की है। छीनना देने से बिलकुल उलटा है। देना पुण्य है, तो छीनना जरूरत नहीं; यह कहने की जरूरत नहीं कि कल अपने में प्रवेश पाप है।
करूंगा। हां, दूसरे में प्रवेश करना हो तो कल तक रुकना लेकिन दोनों हालत में एक बात है समान–दूसरा मौजूद है। | पड़ेगा; दूसरे को राजी करना होगा, समझाना-बुझाना पड़ेगा। दिया तो दूसरे को, छीना तो दूसरे से। दूसरा तो है ही! लेकिन अपने में प्रवेश करना हो तो इसके लिए तो कल तक
तो महावीर कहते हैं, पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है छोड़ने की जरूरत नहीं। इसके लिए तो कोई भी साधन जरूरी
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