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जिन सूत्र भाग: 1
दिखायी भी पड़े। तुम ऐसा मत सोचना कि त्यागी दुखवादी है। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। क्योंकि तुम 'जिसे सुख मानते हो उसे वह छोड़ रहा है, तो तुम्हें लगेगा दुखवादी है। लेकिन त्यागी दुखवादी नहीं है। त्यागी ही परम भोग की तरफ जा रहा है। क्योंकि जिसे तुम सुख कहते हो वह सुख नहीं है। जिसे तुम दुख कहते हो वह दुख नहीं है। जिसे तुम सुख कहते हो वह केवल तुम्हारी आकांक्षा है, आशा है, तृष्णा है।
हविश को आ गया है गुल खिलाना, जरा ए जिंदगी! दामन बचाना।
जिसे तुम सुख कहते हो वह तो केवल हविश है; वह तो एक तृष्णा है, जो कभी भरती नहीं, दुष्पूर है। और जिसे तुम दुख कहते हो, वह तुम्हारे अतीत में चाहे गए सुखों के फल हैं।
तो त्यागी वह है जो तुम्हारे सुख को सुख नहीं देखता, सिर्फ तुम्हारा सपना मानता है; और तुम्हारे दुख को वास्तविक मानता है, क्योंकि वह अतीत जन्मों में किये गये कर्मों का फल है। तो तुम्हारे सुख को तो वह बिलकुल छोड़ देता है, क्योंकि कल्पना को छोड़ने में देर क्या लगती है! कल्पना ही है, छोड़ने को कुछ है भी नहीं । कल्पना ही छोड़नी है; थी ही नहीं, सिर्फ विचार था। तो तुम्हारे सुख को तो तत्क्षण छोड़ देता है।
जो तुम्हारे सुख को छोड़ देता है, वही संन्यासी है। लेकिन दुख को इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। क्योंकि दुख अब कल्पना नहीं है। तुम्हारी अनंत अनंत कल्पनाओं ने जो घाव तुम पर छोड़ दिये हैं, दुख उनका नाम है। तो दुख को वह स्वीकार
करता है।
कल्पना का त्याग संन्यास; दुख का स्वीकार संन्यास । सुख तो यूं छूट जाता है क्योंकि सुख है कहां ? छोड़ने योग्य कुछ है ही नहीं, मुट्ठी खाली है।
दो पागल बात कर रहे थे - पागलखाने में बैठे। एक पागल ने मुट्ठी बांध ली तो उसने कहा कि अनुमान लगाओ, मेरी मुट्ठी में क्या है ? तो पहले पागल ने कहा कि कुछ थोड़े संकेत तो दो । उसने कहा, कोई संकेत नहीं। तीन मौके तुम्हें। तो पहले पागल ने कहा कि हवाई जहाज। दूसरे पागल ने कहा कि नहीं। तो पहले पागल ने कहा, हाथी । तो दूसरे पागल ने कहा, नहीं। तो पहले पागल ने कहा, रेलगाड़ी। तो उसने कहा, ठहर भाई, जरा मुझे देख लेने दे। उसने धीरे से अपनी मुट्ठी खोलकर देखा और
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कहा कि मालूम होता है तूने झांक लिया।
वहां कुछ है नहीं! न रेलगाड़ी है, न हवाई जहाज, न हाथी है। मुट्ठी खोलने पर मुट्ठी खाली है। अगर मुट्ठी में कुछ है तो वह सिर्फ पागलपन के कारण है। वह पागलपन की धारणा है। तो तुम्हारे सुख को छोड़ने में तो क्षणभर की देर नहीं लगती। सुख है ही नहीं। मुट्ठी खाली है।
इसलिए तो लोग मुट्ठी खोलकर नहीं देखते कि कहीं पता न चल जाये कि कुछ भी नहीं है। मुट्ठी बांधे रहो ! कहते हैं, बंधी लाख की ! मैं भी मानता हूं: बंधी लाख की, खुली खाक की ! क्योंकि है ही नहीं कुछ वहां बंधी है, इसलिए लाख मालूम होते हैं। बांधे रखो मुट्ठी, तिजोड़ी पर ताले डाले रखो। खोलकर मत देखना, अन्यथा खाली हाथ पाओगे।
तो सुख तो यूं ही छोड़ा जा सकता है। तत्क्षण छोड़ा जा सकता है । जरा-सा साक्षी भाव - सुख गया ! लेकिन दुख ? दुख थोड़ा समय लेगा। अनंत अनंत जन्मों में वह जो गलत गलत धारणाओं के घाव छूट गये हैं, लकीरें छूट गयी हैं...।
तो सुख का त्याग और दुख का स्वीकार – यही महावीर का संन्यास है। और इस संन्यास का जो परम फल है, वह अपने आप घटता है। वह परम फल निर्वाण है। वह परम फल सुख नहीं है, पुण्य नहीं है, स्वर्ग नहीं है। वह परम फल मोक्ष है, परम स्वतंत्रता है।
स्वतंत्रता का इतना बड़ा उपदेष्टा कभी नहीं हुआ। और भी स्वतंत्रता की बात करनेवाले लोग हुए हैं; लेकिन महावीर की स्वतंत्रता के साथ ऐसी पकड़ है, ऐसी गहरी पकड़ है कि स्वतंत्रता को बचाने के लिए वे परमात्मा तक को स्वतंत्रता की वेदी पर आहुति दे देते हैं। लेकिन स्वतंत्रता की आहुति परमात्मा की वेदी पर नहीं देते। वे कहते हैं, परमात्मा रहेगा तो स्वतंत्रता पूरी न रहेगी। इसलिए परमात्मा नहीं है। स्वतंत्रता परिपूर्ण है। और इस परम स्वतंत्रता को पा लेने की ही सारी दौड़, सारी यात्रा, सारा धर्म, जन्मों-जन्मों के भटकाव ! कैसे इसे हम पायें ?
धीरे-धीरे तुम स्वतंत्रता के सूत्रों को अपने जीवन में जगह देने लगो । जो-जो बांधता हो, उस-उससे जागने लगो । पहले पाप
जागोगे, क्योंकि वह बांधता है, इस बीच के उपाय में पुण्य का सहारा ले लेना। कहीं तो हाथ रखने के लिए जगह चाहिए। पाप
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