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जिन सूत्र भाग : 1
नर्क का अर्थ है : जहां सब हमारी चाह के विपरीत हो रहा है | उस क्षण में तुम कहां होते हो? उस क्षण में तुम शरीर के भीतर जो हम चाहते हैं ठीक उससे उलटा हो रहा है; जिस-जिससे हम | होते हो? नहीं, उस क्षण में शरीर की स्मृति खो जाती है। तुम बचना चाहते हैं वही-वही हो रहा है।
विदेह हो जाते हो। क्योंकि शरीर से हमारा संबंध चाह का संबंध नर्क और स्वर्ग सारी दुनिया की भाषाओं में हैं।
है। उस क्षण में तुम शरीर में नहीं होते। उस क्षण में तुम पृथ्वी पर 'मोक्ष' बड़ा अनूठा शब्द है। मोक्ष का अर्थ है : न तो हमारी नहीं होते। उस क्षण में तुम स्थान में नहीं होते। उस क्षण में तुम अब कोई चाह है, न हमारी कोई पसंद है। क्योंकि महावीर कहते समय में भी नहीं होते। उस क्षण में तुम अचानक किसी दूसरे ही हैं, जब तक चाह है तब तक बंधन रहेगा। हां, यह भी हो सकता लोक में प्रवेश कर गये-पार का लोक! जल्दी ही तुम लौट है कि तुम सोने के बंधन बना लो; लोहे की जंजीरें तोड़ डालो | आओगे। क्योंकि उस पार के लोक में जीने की, उस ऊंचाई पर
और सोने की जंजीरें ढाल लो। और यह भी हो सकता है उन | जीने की तुम्हारी क्षमता नहीं है। उस ऊंचाई पर श्वास लेने की जंजीरों पर हीरे-मोती जड़ दो। वे प्यारे लगने लगें। वे इतने प्यारे तुम्हारी कुशलता नहीं है। उन ऊंचाइयों पर उड़ने की अभी तुमने हो जायें कि आभूषण मालूम पड़ें।
| आदत नहीं डाली, अभ्यास नहीं किया है। बहुत-से आभूषण, जिन्हें तुम आभूषण समझते हो, जंजीरें | इसलिए कभी-कभी क्षणभर को जब चाह छूट जाती है, तब सिद्ध होते हैं; और बहुत-सी जंजीरें जिनकी तुम्हें याद भी नहीं | तुम एकदम मुक्ति अनुभव करते हो। आती कि जंजीरें हैं, आभूषणों में छिप गई हैं।
ऐसे ही तो पहली दफा आदमी को मोक्ष का खयाल उठा होगा तो महावीर कहते हैं, सुख की आकांक्षा या सुख का मिलना भी | कि जो क्षणभर को हो सकता है वह सदा को क्यों न हो! जो एक जंजीर है-सोने की जंजीर है। दुख का मिलना लोहे की जंजीर | क्षण को चेतना में कभी-कभी झलक जाता है, वह सदा के लिए है। लेकिन दोनों बांधते हैं। तुमने खयाल किया? कभी तुम्हें चेतना का स्वभाव क्यों न बन जाये! एकाध क्षण को भी ऐसी चैतन्य की घड़ी आई, जब न सुख की मोक्ष का अर्थ है : जहां चेतना की कोई चाह नहीं। जहां चाह आकांक्षा है न दुख की? तब तुमने देखा, कैसी मुक्ति अनुभव | नहीं वहां संसार में कोई राह नहीं। होती है! सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। सब कारागृह विलुप्त चाह राह बनाती है; संसार में ले आती है। क्योंकि जहां चाह हो जाते हैं। क्षणभर को तुम्हारे चेतना के आकाश में एक भी आई, वहां वस्तुओं का संसार आया। तुमने कुछ चाहा, तुम्हारी बादल नहीं रह जाता। निरभ्र आकाश! अनंत आकाश! जैसे ही आंख दूर गई, 'पर' पर पड़ी-तुम बंधे! तुम उलझन में पड़े! उठी आकांक्षा, बादल घिरे, अंधेरा छाया! आकाश तो खो गया, और जिसने सुख चाहा-उसे दुख मिला। बदलियां रह गईं! धुएं के बादल रह गये!
| यह तो हमारा सबका अनुभव है। सभी ने सुख चाहा कभी क्षणभर को भी अगर तुम्हारे जीवन में ऐसा हो जाता हो, है-मिला कहां? चाहा तो सभी ने सुख है; पाया सभी ने दुख
छा है, न दुख की, कोई इच्छा नहीं है, तुम है। इसे तुम कब देखोगे? कब जागोगे कि चाह तो कुछ और अनिच्छा में बैठे हो–उसी घड़ी को महावीर 'सामायिक' कहते होती है, मिलता कुछ और है। हैं। तुम संसार के बाहर हो। क्योंकि महावीर के हिसाब में संसार तो महावीर कहते हैं, यह जीवन का आधारभूत नियम है कि जो का अर्थ है : चाह के भीतर होना।
| सुख चाहेगा वह दुख पायेगा। सुख की चाह में ही दुख छिपा है। चाह से भरे होना संसार में होना है। फिर तुम चाह कोई भी | इसे समझो। करो। चाहे पृथ्वी के धन की हो, चाहे स्वर्ग के धन की हो; चाहे | पहला, सुख वही चाहता है जो दुखी है-एक बात। क्योंकि तुम पुण्य की आकांक्षा करो; लेकिन कोई भी आकांक्षा है, चाहत | तुम वही चाहते हो जो तुम्हारे पास नहीं है। जो तुम्हारे पास है, जारी है और तुम संसार में हो।
| तुम क्यों चाहोगे? जो तुम्हारे पास है ही, उसकी तो चाह खो ऐसी भी घड़ियां हैं चैतन्य की, जब कोई चाह नहीं, जब तुम | जाती है; जो नहीं है उसकी ही चाह पैदा होती है। अभाव चाह | हो-निपट अकेले! शुद्ध! कोई धुएं की रेखा भी भीतर नहीं। को जन्माता है। अभाव जन्मदाता है।
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