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जिन-शासन अर्थात आध्यात्मिक ज्यामिति
तो जिस आदमी ने सुख चाहा, एक बात तो उसने यह बतायी दुख निकलता है। कि वह दुखी है। फिर जिस आदमी ने सुख चाहा, उसने दूसरी तो महावीर कहते हैं, जिसने छोड़ा है, उसने सिर्फ दुख को ही बात भी बतायी कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो | नहीं छोड़ा, उसने सुख को भी छोड़ा है। उसने नर्क का ही त्याग जाऊंगा, विषाद घेरेगा, असफलता हाथ लगेगी। और जैसे ही नहीं किया...। वह तो सभी करते हैं; उसमें कौन-सी कुशलता उसे यह खयाल आया कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो | है? उसमें कौन-सी मेधा है? दुख से कौन नहीं बचना जाऊंगा, विषाद होगा मेरे जीवन में, उद्विग्न हो जाऊंगा, हारा चाहता-सभी बचते हैं। उसमें कौन-सी बुद्धिमानी है? उसमें हुआ, थका हुआ, पराजित-भय समाया! भय आया। यह कौन-सी विशेषता है। लेकिन जिसने गौर से देखा, समझा, आदमी वैसे ही दुखी था, इसने सुख की चाह करके और दुख | जीवन की पर्तों को उघाड़ा, रहस्य को पहचाना, गणित का सूत्र बुला लिया, और भयभीत हो गया। अब यह डगमगाते कदमों समझ में आ गया उसे कि दुख की सारी चाल यही है कि वह तुम्हें से सुख की तरफ चलता है।
| सुख का आश्वासन देता है और भरमा लेता है। तुम सुख के और, सुख हम सदा बाहर मांगते हैं: किसी स्त्री से मिलेगा, आश्वासन में दुख के पीछे चले जाते हो, भटक जाते हो। किसी पुरुष से मिलेगा, धन से मिलेगा, पद से मिलेगा! लेकिन मिलता दुख है, चाहते सदा सुख हो। पद से सुख का क्या संबंध है? तुम कितनी ऊंची कुर्सी पर बैठते । जो जागा इस अनुभव में, उसने सुख नहीं चाहा। और जिसने हो, इससे सुख का क्या संबंध? तुम कितने बड़े मकान में हो, सुख नहीं चाहा, उसके जीवन से दुख विदा होने लगे। क्योंकि इससे क्या सुख का संबंध है?
| बिना सुख की चाह के दुख निर्मित नहीं हो सकता। सुख का मकान के बड़े और छोटे होने से कहीं भी तो कोई थोड़ा सोचो! संबंध नहीं है। क्योंकि सड़क पर खड़े भिखारी भी कभी सुखी जिस आदमी ने सफलता नहीं चाही, उसे तुम विफल कैसे देखे गये हैं। महावीर खुद ही ऐसे भिखारी थे। और कभी महलों करोगे? और जिसने कभी जीतना नहीं चाहा, उसे तुम हराओगे में सम्राट भी दुखी देखे गये हैं।
कैसे? और जिसने कभी धनी होने के पागलपन में अपने को तो दुख और सुख का संबंध स्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता, नहीं लगाया, उसे तुम निर्धन कैसे कर पाओगे? और जिसने परिस्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता—कुछ भीतरी दशाओं से तुमसे सम्मान नहीं मांगा, तुम उसका अपमान कैसे करोगे? जुड़ा है। तो जब भी तुमने बाहर मांगा, गलत जगह मांगा। और | करोगे कैसे? उपाय कहां है ? उसने तुम्हें सुविधा कहां दी? मांग मात्र बाहर की होती है। भीतर तो मांगोगे किससे, मांगोगे जिसने सम्मान चाहा, उसे तुम अपमानित कर सकते हो। क्या? वहां तो कुछ भी नहीं है-शून्य आकाश है। वहां तो जिसने धन चाहा, उसकी चाह में ही वह निर्धन हो गया। जिसने कोरापन है। वहां तो तुम मुट्ठी बांधना चाहोगे तो बंधेगी नहीं; जीत चाही, उसने पराजय के ढेर लगा लिये। बंध भी जायेगी तो हाथ में कुछ न आयेगा। आकाश को कौन इसलिए महावीर कहते हैं: मोक्ष का अर्थ है इस अनुभव को मुट्ठी में बांध सका है! आत्मा को भी कोई नहीं बांध सका है। तुम्हारे जीवन की स्थिर दशा बना लेना कि न सुख की चाह न
तो भीतर तो कुछ पकड़ में आता नहीं, बाहर पकड़ में चीजें आ दुख की चाह, न नर्कन स्वर्ग, कोई चाह नहीं। जाती हैं, तो हम सोचते हैं बाहर होगा। ऐसे बाहर दौड़ते हैं जहां ___ अचाह की दशा मोक्ष है। नहीं है। फिर एक न एक दिन स्वप्न टूटता है और पता चलता है । तो यह तो परिणाम है मोक्ष। मोक्ष यहां घट सकता है। ऐसा यहां नहीं है; हम महादुखी हो जाते हैं। उस महादुख से और बड़े मत सोचना जैसा कि साधारणतः लोग समझते हैं कि मोक्ष मरने सुख की आकांक्षा पैदा होती है। क्योंकि जितने हम दुखी होते हैं | के बाद घटता है। जिसको जीते-जी नहीं घटा उसे मरने के बाद उतनी ही तीव्र आकांक्षा होती है कि जल्दी करो, मौत करीब आयी | भी नहीं घटेगा। पहले तो मोक्ष जीवन में उतरता है। इसलिए जाती है, सुखी होना है। ऐसा एक दुष्टचक्र है। दुख में से सुख व्यक्ति पहले जीवन-मुक्त होता है-जीते-जी मुक्त होता है। की आकांक्षा निकलती है; सुख की आकांक्षा में से और बड़ा फिर जो जीते-जी मुक्त हो गया, वह तो मरने के बाद भी मुक्त
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