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जिन सूत्र भागः1
अगर तुम्हारे जीवन की प्याली अमृत से बिना भरी रह गई तो | हैं, बाहर निकालते हैं। कुछ आश्चर्य नहीं; क्योंकि तुमने शास्त्रों से ही जीवन की प्याली तपश्चर्या का अर्थ है : इस जीवन-दृष्टि का ठे को भरना चाहा। शास्त्रों से ही तुमने सोचा कि तुम बुद्धिमान हो | जाना। सुख को बुलाना नहीं, कोई निमंत्रण नहीं लिखना और जाओगे। तो अहले-दानिश हो गये, तथाकथित बुद्धिमान हो | दुख आ जाये तो जो आ गया बिना बुलाये, अतिथि देव है, गये। कंठस्थ हो गये सत्य। लेकिन कंठस्थ सत्य, सत्य नहीं | उसको स्वीकार कर लेना। है-मात्र थोथे सिद्धांत हैं। प्राण कौन डालेगा उनमें? प्राण तो तो तप का अर्थ दुख पैदा करना नहीं है; लेकिन दुख जो तुमने व्यक्ति को स्वयं डालने होते हैं। इसे याद रखना।
जन्मों-जन्मों में अर्जित किया है, वह आयेगा। उसके साथ क्या जिसे तुम पाओ वही सत्य है। जिसे तुमने नहीं पाया वह सत्य | रुख अपनाओगे? तप एक रुख है, दृष्टि है। तप यह कहता है, नहीं हो सकता: वह सत्य के संबंध में कोई सिद्धांत होगा। ऐसा मैंने दुख के बीज बोये थे, अब फसल काटने का वक्त आ गया ही समझो कि पाक-शास्त्र पढ़ते रहो, पढ़ते रहो, इससे न तो | तो मैं काटूंगा। यह फसल कौन काटेगा? दुख के बीज मैंने बोये भूख मिटेगी, न जीवन पुष्ट होगा। रोटी पकानी पड़ेगी। आटा | थे तो फसल भी मुझे ही काटनी है। तो अब रो-रोकर क्या गूंथना पड़ेगा। चूल्हा जलाना पड़ेगा। इतना ही नहीं, फिर रोटी काटनी ! अब स्वीकार-भाव से काट लेनी है। पचानी पड़ेगी। रोटी भी बन जाये तो भी कुछ काम नहीं आती, | इसे खयाल रखना; नहीं तो भ्रांति क्या है कि जो लोग तपस्वी जब तक कि पचाने की क्षमता न हो, जब तक रोटी पचे न और | बनते हैं, वे सोचते हैं, अभी सुख को लिखते थे चिट्ठियां, अब लहू में रूपांतरित न हो जाये, हड्डी, मांस-मज्जा न बने, तब तक दुख को लिखो! मगर चिट्ठियां लिखना जारी रहता है। बुलावा किस काम की?
भेजते ही रहते हैं। पहले सुख को पकड़ते थे; अब वे सोचते हैं, दर्शन की भट्टी में ज्ञान की रोटी पकती है। और ज्ञान की रोटी दुख को पकड़ो। पहले सुख को न जाने देते थे; अब दुख जाने को जब तुम पचाते हो और ज्ञान की रोटी जब तुम्हारा खून, | लगे तो वे कहते हैं, 'मत जाओ! तुम्हारे बिना हम कैसे रहेंगे।' मांस-मज्जा बन जाती है, तो चारित्र्य। चरित्र आखिरी बात है। लेकिन यह तो विकृति हो गई। यह तो रोग हो गया। यह तो सबसे पहले तो शून्य आकाश में दर्शन घटता है। फिर दर्शन | पुराना रोग बदला तो नया रोग पकड़ गया। उतरता है तुम्हारी अंतरात्मा में, ज्ञान बनता है। फिर ज्ञान तुम्हारे तप का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि जो आये दुख तो निश्चित जीवन में अनस्यूत हो जाता है। तब चारित्र्य बनता है। ये त्रिरत्न हमने कमाया होगा; बिना कमाये कुछ भी आता नहीं। तो हमने और तप।
किसी न किसी रूप में उसे बुलाया होगा। बिना बुलाये कुछ भी 'तप' शब्द भी समझने जैसा है। तप का अर्थ अपने को दुख आता नहीं। हमने सुख मानकर ही बुलाया होगा; लेकिन वह देना नहीं होता। तपस्वी का अर्थ अपने को सतानेवाला नहीं है, | हमारी मान्यता भ्रांत थी। जिसको हमने सुख कहकर पुकारा था, मेसोचिस्ट नहीं है। तप का अर्थ होता है : दुख आये तो उसे वह दुख का नाम था। आ गया दुख, अब इसे स्वीकार कर सहिष्णुता से स्वीकार करना। तप का अर्थ है: दुख आये तो उसे | लेना। इसे धक्के नहीं देना, इनकार दुश्मन की तरह दुत्कारना नहीं; उसे भी मित्र की तरह स्वीकार साक्षी-भाव रखना है। कर लेना। साधारणतः हम सुख को तो बुलाते हैं, दुख को दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप जिनेंद्रदेव ने मोक्ष के मार्ग कहे। दुत्कारते हैं। तप का अर्थ होता है : सुख को तो बुलाना मत; आ | शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं...।' गये दुख को स्वीकार कर लेना।
यह बड़ी क्रांतिकारी बात है : 'शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के तप हमसे ठीक उलटी व्यवस्था है। अभी हम कहते हैं, सुख | मार्ग नहीं हैं। इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।' आये, चिट्ठियां लिखते हैं सुख को कि आओ, निमंत्रण भेजते | __अच्छा करूं, बुरा न करूं, पुण्य करूं, पाप न करूं-ये शुभ हैं। और दुख को, बिना बुलाया भी आ जाये-बिना बुलाया ही | भाव हैं। किसी को दुख न दं, सुख दूं-ये शुभ भाव हैं। मुझसे आता है, क्योंकि कौन दुख को बुलाता है-उसे हम धक्का देते हिंसा न हो, अहिंसा हो; लोभ न हो, दान हो; क्रोध न हो, दया
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