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जिन सूत्र भागः1
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में। अगर भीतर गई तो भी होश खो जायेंगे। अगर घबड़ाकर विराजमान हो जाता है। जिसको लोग सिर्फ पैर की ठोकरें बाहर आ गई तो फिर होश खो जायेंगे। और जब दो मारकर निकल जाते थे, उसी के चरणों में लोग आकर ि मधुशालाओं में ही चुनना हो, जब दो शराबों में ही चुनना हो तो | झुकाने लगते हैं, फूल चढ़ाने लगते हैं। फिर परमात्मा की ही शराब चुन लेना। संसार की तो बहुत कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं चखी, बहुत स्वाद लिया—कुछ पाया नहीं। अब इस गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ अपरिचित, अनजान का भी एक स्वाद ले लें। हिम्मत करना। करारे-खातिरे बेताब-थक गया हूं में। बावलापन तो उठेगा।
कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं! बंगाल में संतों का एक संप्रदाय है, उसका नाम ही 'बाउल' चाहे कितनी ही पीड़ा हो, जाना उसी की तरफ! है-बावरे, पागल! बड़े अदभुत संत हुए बाउल। नाचते कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं! हैं-आनंद-मग्न! उस भीतर की शराब में मस्त, मदहोश! कहना भी हो, शिकायत भी करनी हो, तो उसी से करना। धीरे-धीरे उनका नाम ही 'बावरा' हो गया। लेकिन जिसे तुम | बाहर मत लौटना। यह तो कसम खा लेना कि अब बाहर नहीं समझदारी कहते हो, उससे वह लाख गुना कीमती है।
लौटना है। क्योंकि बाहर को देख तो चुके बहुत, पाया क्या? तुम्हारी समझदारी भी हाथ में क्या लाती है? कुछ ठीकरे इकट्ठे | अब लौटकर भी क्या पायेंगे? हो जाते हैं, जो मौत छीन लेती है। कुछ नाम-धाम हो जाता है, कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं जो तुम्हारे जाते ही पोंछ दिया जाता है, दूसरों के लिए जगह गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब... बनानी पड़ती है।
और मैंने जो धैर्य और सहनशक्ति के बहुत दावे किये थे, वह दुनिया का होश है न कुछ अपनी खबर मुझे
सब गलत थे। तुम उन पर ज्यादा अब भरोसा मत करो, आ बेखुद बना दिया है यूं तेरे जमाल ने।
जाओ! उसमें डूबो! बेखुदी खुदा को पाने का उपाय है। आदमी ने अपने अहंकार में बहुत दफा सोचा है कि मैं मिटना होने की एकमात्र संभावना।
सहनशक्ति रखता हूं, शांति रखता हूं, धैर्य रखता हूं, मेरा धैर्य यह शून्य डरायेगा, घबड़ायेगा। जैसे कोई पक्षी अब तक | अडिग है। घोंसले में रहा हो और आज अचानक खुले आकाश में: गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब... घबड़ायेगा! चिंतित होगा, बेचैन होगा! लौट-लौट पड़ेगा मन | -वे सब दावे जो मैंने किये थे-आत्मबल के, धैर्य के, कि चल पड़ो अपने घोंसले की तरफ, कहां इन तूफानों में उलझने | सहनशक्ति के सब गलत थे। क्षमा करो मुझे! लगे? कहां ये हवाएं और आकाश और बादल, और कहां ये गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ सूरज और ये चांद-तारे! और यह कितना विराट है! भागो! करारे-खातिरे-बेताब थक गया हूं मैं। अपने घोंसले में छिप जाओ। ठीक वैसी दशा है। मन बहत और अब तो मैं थक गया हूं। करेगा घोंसले में उतर आने का।
'सरोज' पूछती है कि असहाय, बेसहारा...। लेकिन अब लौटना मत। अब उसको पुकारा है तो पुकारे ही तो अब बाहर मत लौटना। अब उसी से कहना कि थक गई है चले जाना। और अब सुख आये कि दुख, पीड़ा हो कि बहुत और अब मुझसे नहीं सहा जाता। लेकिन भीतर की तरफ जलन-अंगीकार कर लेना, क्योंकि हमें पता नहीं है शायद यही से आंख मत हटाना। कठिन होंगे ये क्षण। लेकिन जो गुजर हमारे जीवन-निर्माण के लिए जरूरी है।
जाता है इन क्षणों से, वह एक बिलकुल नये अभिनव जीवन को छैनी से जब कोई पत्थर को तोड़ने लगता है, तो पत्थर भी तो | उपलब्ध हो जाता है। ये क्षण क्रांति के क्षण हैं। रोता होगा। लेकिन छैनी से टूट-टूटकर ही पत्थर प्रतिमा बनता | सौ में से निन्यानबे लोग तो कभी इस दशा को पहुंचते नहीं। है। जो राह के किनारे पड़ा था, वह मंदिर के अंतर्गर्भ में फिर जो सौ लोग पहुंचते हैं उनमें से निन्यानबे बाहर वापस लौट
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