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पलकन पग पोंछु आज पिया के
साधक सत्य को खोजने के लिए अपनी पात्रता इकट्ठी करता तो ऐसा हुआ होगा। है। भक्त, सत्य तो है ही, प्रभू तो है ही, अब मैं उसके योग्य बन, बहत युवक मझे सनने आ जाते हैं, यवतियां सनने आ जाती इसके लिए अपनी पात्रता इकट्ठी करता है। दोनों की दिशाओं में हैं। यह शुभ लक्षण है। क्योंकि बूढ़े धर्म की बात सुनने आयें, बड़ा फर्क है।
| यह अशुभ लक्षण है। बूढ़े तो धर्म की बात सुनने तभी आते हैं सत्य का खोजी विचार-निर्विचार के पंखों से चलता है। जब जिंदगी में उनके सब उपाय व्यर्थ हो गये, मौत करीब आने भक्त-न विचार, न निर्विचार; भाव, भक्ति, पूजा, प्रार्थना! लगी! मौत के भय से! और जब बूढ़े ही मंदिर, मस्जिदों में आने एक तो तय ही है बात कि परमात्मा है, इसलिए खोजने का उसके | लगते हैं और जवान वहां से खो जाते हैं, तो वे मंदिर-मस्जिद भी पास सवाल नहीं है। वह खोजने की झंझट में नहीं पड़ता। उसे कब्रों जैसे हो जाते हैं, मुर्दा हो जाते हैं। शुभ है तो अपने होने की वजह से इतना पर्याप्त प्रमाण मिल गया है कि युवतियां भी धर्म को समझने की कोशिश करें, क्योंकि उनके जीवन है, जीवन का स्रोत भी है। अपनी किरण को देखकर ही कारण धर्म भी यवा रहता है। जब भी धर्म जद समझ गया कि सूरज भी है, अन्यथा किरण कैसे होती? मैं हूं, उसमें वृद्ध तो आते ही हैं, युवा भी आते हैं। इतना काफी है। तू भी है। अब कैसे मैं अपने को तैयार कर लूं? | और यह फर्क समझ लेना। मुझे तो जो वृद्ध भी सुनने आते हैं,
तो अत्यंत प्रेम से भरकर प्रतीक्षा करो! उसकी पग-ध्वनि वे भी तभी आ सकते हैं जब वे किसी गहरे अर्थ में अभी भी युवा सुनो! आता ही होगा! द्वार पर कान लगाकर बैठ जाओ। उसके हों। और मंदिर-मस्जिदों में अगर कभी कोई जवान भी पहुंच विरह में, जब तक नहीं आया है, उसकी अनुपस्थिति में, उसके| जाता है तो तभी पहुंचता है जब वह किसी गहरे अर्थ में बूढ़ा हो अभाव में भी, उसके भाव को अनुभव करो। उसका अभाव भी चुका; वह जिंदा नहीं है अब, रुग्ण है। क्योंकि मैं जो कह रहा प्यारा है। इसे समझना।
हूं, वह जीवन-विरोधी नहीं है। मैं जो कह रहा हूं, वह महाजीवन संसार की चीजें मिल भी जायें तो कुछ नहीं मिलता; और की खोज है। परमात्मा न भी मिले, सिर्फ उसकी याद भी मिल जाये तो सब तो अनेक बार ऐसा हो जायेगा कि युवा-युवती आ जायेंगे मिल जाता है!
सुनने, सुनकर उनको कई रूपांतरण होंगे। जिसे उन्होंने कल तक
हंसी-खुशी समझा था, वह हंसी-खुशी मालूम न होगी। अच्छा आखिरी प्रश्नः आपको सुनने के पूर्व मैं कालेज की है, कुछ बोध जगना शुरू हुआ। क्योंकि अब तक जिसे हंसती-खेलती छात्रा रही; सुनने के बाद न जाने क्या हुआ कि | हंसी-खुशी जाना था, वह केवल नासमझी थी, वह केवल कहीं भी रुचि नहीं लगती-सुख-भोग में भी नहीं। सत्संग में बचपना था। अभी खिलौनों से खेलते रहे थे। मेरे पास आकर आती भी हूं और आने से कतराती भी हूं। कृपापूर्वक उनको दिखाई पड़ जायेगा, ये तो खिलौने हैं। रस खो जायेगा। मार्ग-दर्शन दें।
असली जीवन की शुरुआत के पहले खिलौनों में रस खो जाना
जरूरी है। जो हंसना-खेलना इतनी सरलता से खो जाये, उसका कोई | फिर आने में डर भी लगेगा। आने का मन भी होगा। आने से मूल्य नहीं। मैं तुम्हें ऐसा हंसना-खेलना सिखाऊंगा जो फिर खो बचना भी संभव नहीं है और डर भी लगेगा। डर लगेगा कि कहीं न सके।
ऐसा न हो कि सारा जीवन का रस खो जाये। और आने से रुकना एक तो बचपन है, जिसमें बच्चे प्रसन्न होते हैं। उस प्रसन्नता भी असंभव होगा, क्योंकि कोई रस पैदा होगा जो पुकारेगा और का कोई बहुत मूल्य नहीं है—जिंदगी उसे नष्ट कर देगी। फिर बुलायेगा। एक दुविधा पैदा होगी। यह भी शुभ लक्षण है। यह एक और बचपन है, जो जीवन की चरम प्रौढ़ता से उपलब्ध होता सोच-विचारशील व्यक्ति का लक्षण है। है। संत फिर छोटे बच्चों जैसे हो जाते हैं। फिर एक हंसना और सोच-विचारशील व्यक्ति को जीवन में हजार ऐसे मौके आते खेलना पैदा होता है; उसे फिर कोई भी न छीन सकेगा। | हैं, जहां उसे तय करना पड़ता है; जहां आधा मन कहता है मत
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