Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 437
________________ अनेक हैं। देह भी एक नहीं है, क्योंकि देह भी रोज बदलती है। | बचपन में एक थी, जवानी में और है, बुढ़ापे में और होगी। और ये तो मोटे विभाजन हैं, अगर गौर से देखो तो रोज बदलती है। सुबह कुछ है सांझ कुछ है । देह हजार बार बदलती है। मन तो करोड़ बार बदलता है। यह कोई भी एक नहीं है । इन सबके भीतर अगर तुम एक को खोज लो, वह एक ही साक्षी - भाव है— ज्ञायक - भाव जिसको महावीर कहते हैं ज्ञाता - वह एक है । बचपन में भी वही था, जवानी में भी वही, बुढ़ापे में भी वही । सुख में, दुख में, क्रोध में, प्रेम में, करुणा में -- सब में वही । वह एक है । उस एक को जिसने पकड़ लिया उसने जीवन का आधार खोज लिया। उस एक पर जो अपने भवन को खड़ा करेगा, उसके शिखर मोक्ष तक उठ जायेंगे। 'मैं एक, शुद्ध, ममता - रहित, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण... ।' उस अंतरात्मा का एक ही लक्षण है: ज्ञान-दर्शन; जानने की, | देखने की क्षमता। बस इतना उसका स्वभाव है। आत्मा का इतना ही स्वभाव है : देखने-जानने की क्षमता। अगर जानो और देखो, इस क्षमता का उपयोग करो, तो संसार बन जाता है। अगर न जानो, न देखो, इस क्षमता को शुद्ध छोड़ दो, उपयोग मत करो, तो मुक्ति फलित हो जाती है। धर्म की मूल भित्ति: अभय तरंगें तो बहुत उठीं, लहरें तो बहुत आईं; लेकिन तट ! वह जगह न मिली, जहां सब लहरें शांत हो जाती हैं। Jain Education International उफ! तूफान तो बहुत रहे, आंधियां तो बहुत रहीं; लेकिन ऐसी कोई शरण न मिली, जहां सुख-चैन हो जाता है। नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये और सदा अधूरा-अधूरा रहा; कुछ मिला तो कुछ कम हो गया। नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। इस संसार में प्यास तो है, प्यार तो है; लेकिन न भाषा मिलती, न माध्यम मिलता, न द्वार मिलता । भटकती है रूह रेगिस्तानों में — प्यास के, अतृप्ति के असंतोष के । जो बाहर जायेगा तो ऐसा ही होगा। भीतर आते ही किनारा मिलता है। बाहर प्यास ही प्यास है, भीतर तृप्ति ही तृप्ति । मुझे ऐसा कहने दो कि बाहर प्यास ही प्यास है और तृप्ति बिलकुल नहीं; और भीतर तृप्ति ही तृप्ति है, प्यास बिलकुल नहीं। तो असली सवाल भीतर आने का है। आनंद तुम्हारा स्वभाव है। 'मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण 'अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर, मैं इन हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गए प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली। -जैसी जिंदगी है, वहां सिर्फ प्यास है, तृप्ति नहीं है। प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली ! जिसे तुम संसार कहते हो, वह प्यास और प्यास और प्यास, मरुस्थल ! हां, दूर मरूद्यान दिखाई पड़ते हैं, पास पहुंचने पर मरूद्यान सिद्ध नहीं होते। वे सारी प्यासें, तड़फड़ाहटें दौड़, आपाधापी, वह बाहर का सारा जाल, सूखे कंठ, रोती आंखें - उन सबका त्याग होता चला जाता है, क्षय होता चला जाता है। उपनिषद ठीक महावीर की इस अंतर्दृष्टि को प्रगट करते हैं। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो । मैं सदा रहनेवाला, सनातन, सदा सदैव स्थिर रहनेवाला आत्मा हूं। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो । और जब तक कोई शाश्वत से न जुड़ जाये, क्षणभंगुर से कैसे सुख पाया जा सकता है? पानी के बबूलों को संपदा बनाने में प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली। दिखाई भी पड़े जल-स्रोत, तो भी सत्य सिद्ध न हुए मन के लगे हो । हाथ में नहीं आते, तब तक तो इंद्रधनुष उन पर बनते ही स्वप्न थे ! हैं; हाथ में आते ही फूट जाते हैं। नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली। उपनिषद कहते हैं : सतां हि सत्य । सत्पुरुषों का स्वभाव ही For Private & Personal Use Only 427 www.jainelibrary.org

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