________________
जिन सूत्र भाग
एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है—ज्ञान। वृक्ष दिखाई पड़ जाननेवाले को ही न जाना तो और जानकर करोगे क्या? अपने रहे हैं, हरे हैं, सुंदर हैं, प्रीतिकर हैं। उनकी सुगंध तुम्हारी को ही न पहचाना तो और पहचान किस काम में आयेगी? नासापुटों को भर रही है। ताजी-ताजी भूमि से सुवास आ रही अपने से ही बिना परिचित हुए चल पड़े, तो कितनों से परिचय है। फूल खिले हैं। पक्षियों के गीत हैं। तुम्हारे और उनके बीच बनाया, उसका क्या सार होगा? दूसरों से परिचित होने में ही एक सेतु फैला है, एक तंतु-जाल फैला है। उस तंतु-जाल को मत गंवा देना जीवन को। परिचय की प्रक्रिया को समझने में ही हम कहते हैं ज्ञान। आंख न होंगी तो तुम हरियाली न देख मत गंवा देना जीवन को। यह कौन है तुम्हारे भीतर, जिसके सकोगे। तो हरियाली सिर्फ वृक्षों में नहीं है-आंख के बिना हो माध्यम से ज्ञान घटता है, जिसके माध्यम से ज्ञेय से संबंध बनता ही नहीं सकती। तो हरियाली तो वृक्ष और आंख के बीच घटती है? यह ज्ञाता-भाव! यह चैतन्य ! यह होश! यह बोध ! इसकी है। वैज्ञानिक भी अब इस बात से राजी हैं। जब कोई देखनेवाला | खोज ही धर्म है। नहीं होता तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे बगीचे के वृक्ष हरे पहला सूत्रः रहते हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं रहता तो हरे हो ही नहीं | णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दुजो भावो। सकते। क्योंकि हरापन वृक्ष का गुण-धर्म नहीं है-हरापन वृक्ष __ एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।।
और आंख के बीच का नाता है। बिना आंख के वृक्ष हरे नहीं 'आत्मा ज्ञायक है। आत्मा जाननेवाला है। आत्मा ज्ञाता है, होते-हो नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। जब आंख ही नहीं है द्रष्टा है। जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त। जो तो हरापन प्रगट ही नहीं होगा। वृक्ष होंगे-रंगहीन। गुलाब का | अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है। आत्मा ज्ञायक-रूप फूल गुलाबी न होगा। गुलाब का फूल और तुम जब मिलते हो, में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत तब गुलाबी होता है। 'गुलाबी' तुम्हारे और गुलाब के फूल के अशुद्धता नहीं है।' बीच का संबंध है।
__ यह बड़ा बारीक सूक्ष्म सूत्र है! समझने की चेष्टा करना। तो दूसरा जगत है : ज्ञान। कुछ लोग हैं जो वस्तुओं के पीछे क्योंकि महावीर के अंतस्तल के बहुत करीब है। यही उनकी पड़े हैं, फूलों के पीछे पड़े हैं। उनसे कुछ जो ज्यादा समझदार हैं, | भित्ति है, जिस पर सारी जैन-साधना का मंदिर खड़ा है। वे फिर ज्ञान की खोज में लगते हैं। वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक हैं, आत्मा ज्ञायक है-यह तो पहली बात, यह पहली उदघोषणा, कवि हैं, मनीषी हैं, विचारक हैं, चिंतक हैं—वे ज्ञान की पकड़ में यह पहला वक्तव्य कि आत्मा ज्ञेय नहीं है, वस्तु नहीं है: जान लगे हैं। वे ज्ञान को बढ़ाते हैं।
सको, ऐसी नहीं है। क्योंकि जिसे भी हम जान लेते हैं, उसका ही महावीर कहते हैं, यह भी थोड़ा बाहर है। इसके भीतर छिपा है रहस्य खो जाता है। इसलिए आत्मा कभी विज्ञान का विषय बन तुम्हारा ज्ञायक स्वरूप, ज्ञाता। ये तीन त्रिभंगियां हैं-ज्ञाता, सकेगी, इसकी संभावना नहीं है। विज्ञान लाख उपाय करे, वह ज्ञेय, ज्ञान। जो परम रहस्य के खोजी हैं, वे ज्ञान की भी फिक्र जो भी जानेगा वह आत्मा नहीं होगी। क्योंकि आत्मा तो नहीं करते, वे तो उसकी फिक्र करते हैं: 'यह जाननेवाला कौन आत्यंतिक रूप से जाननेवाली है; जानी नहीं जा सकती। उसे है!' जो सबसे दूर हैं ज्ञान की यात्रा पर, वे फिक्र करते हैं : 'यह हम अपने सामने रख नहीं सकते। जिसके सामने हम सब रखते जानी जानेवाली चीज क्या है!' जो परम रहस्य के खोजी हैं, वह | हैं, वही आत्मा है। तो आत्मा को स्वयं तो हम कभी अपने फिक्र करते हैं : यह जाननेवाला कौन है! यह मैं कौन है, जो जान सामने न रख सकेंगे। रहा है, जिसके लिए वृक्ष हरे हैं, जिसके लिए गुलाबी फूल | अगर महावीर की बात ठीक समझो तो महावीर यह कह रहे गुलाबी हैं; जिसके लिए चांद-तारे सुंदर हैं! यह मैं कौन हूं! हैं : 'आत्मज्ञान' शब्द ठीक नहीं है। वस्तुओं का ज्ञान हो सकता
इन दोनों के बीच में दार्शनिक है, वैज्ञानिक है, चिंतक है। है, पर का ज्ञान हो सकता है, आत्मज्ञान कैसे होगा? आत्मज्ञान महावीर की सारी खोज उस ज्ञाता-स्वरूप की खोज है; 'यह का तो मतलब हुआ कि तुमने आत्मा को भी दो हिस्सों में तोड़ जाननेवाला कौन है!' क्योंकि महावीर कहते हैं, अगर लिया-जाननेवाला और जाना जानेवाला। तो महावीर कहते हैं
416
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org