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संसार से अछता बच गया है, जिसे संसार दषित नहीं कर पाया, अब सामान कहां हैं? जिस समय को संसार की कोई छाया नहीं पड़ी, कुंआरा अब वे मेरे गान कहां हैं? है-वही सामायिक।
जगती के नीरस मरुथल पर जिसने समय को न बचाया और जिसने समय की शुद्धता न हंसता था मैं जिनके बल पर जानी, जो सामायिक में न जीया-वह आया भी वसंत में और चिर वसंत-सेवित सपनों के पतझड़ में रहा। जीवन का प्रसाद बरसता था, लेकिन उसका मेरे वे उद्यान कहां हैं? पात्र उलटा पड़ा रहा। जीवन की अमृत-सरिता बहती थी, वह अब वे मेरे गान कहां हैं? किनारे पर ही पीठ किए खड़ा रहा-कहीं और देखता रहा और ऐसा कहीं तब न पता चले जब करने को कोई शक्ति हाथ में न प्यासा रहा, और कंठ जलता रहा।।
| रह जाये। पता तो सभी को चलता है। एक न एक दिन वे सब जिसमें तुम आज अपने को लगाये हो, आज नहीं कल तुम गीत जो गुनगुना-गुनगुनाकर मन को समझाया था, वे सब व्यर्थ पाओगे व्यर्थ है। जो जितनी जल्दी पा ले, उतना बोध, उतनी सिद्ध होते हैं। पानी पर खींची गई लकीरें, कि रेत पर किये गये बुद्धि, उतनी समझ उसमें है। कुछ हैं जो मरते दम तक नहीं हस्ताक्षर, कि तुम बना भी नहीं पाते कि पुंछ जाते हैं और मिट पाते-मरकर भी नहीं पाते! कुछ हैं जो बुढ़ापा आते-आते थोड़े जाते हैं। कि कागज की नावें कि तुमने छोड़ी नहीं कि डूब जाती चेतते हैं। इधर शरीर डगमगाने लगता है तो उधर आत्मा थोड़ी हैं! कि ताश के पत्तों के घर कि हवा का जरा-सा झोंका, और सम्हलती है। इधर रोग पकड़ने लगते हैं, बीमारियां घर करने | फिर उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिलती! लगती हैं, चोट पड़ती है। कुछ खयाल आता है: कैसे जिंदगी आज वे मेरे गान कहां हैं? गंवा दी। लेकिन जो और समझदार हैं, वे भरी जवानी में जाग टूट गई मरकत की प्याली जाते हैं। जब कि सब तरफ लुभावना जगत था और सब तरफ लुप्त हुई मदिरा की लाली आकर्षण थे, उनको भी वह गहरी आंख से देख लेते हैं और मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले उनके पीछे भी पाते हैं कुछ नहीं, सिवाय मन के भ्रमों के; अब सामान कहां हैं? अपनी ही कल्पनाओं, अपने ही सपनों का जाल है; अपने ही अब वे मेरे गान कहां हैं? प्रक्षेपण हैं। भरी जवानी में भी जाग जाते हैं। जो और भी प्रगाढ़ | लेकिन यह उस दिन याद न आये, जब आंखों में देखने की हैं, वह बचपन में ही जाग जाते हैं।
शक्ति भी न बचे, प्राणों में जागने की ऊर्जा भी न बचे। यह उस कहते हैं, लाओत्सु पैदा ही हुआ जागा हुआ। हुआ होगा; | दिन याद न आये जबकि पैर खड़े होने में असमर्थ हो जायें। यह क्योंकि उससे उलटा तो हम देखते ही हैं, लोग मर ही जाते हैं। अभी याद आ जाये तो कुछ हो सकता है। सोये-सोये। अगर जिंदगीभर लोग सोये-सोये मर सकते हैं, यह महावीर कहते हैं, जगत का अनुभव तीन खंडों में तोड़ा जा घटना घट सकती है, एक अति पर, तो दूसरी अति पर यह भी सकता है। जो वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, वे हैं ज्ञेय, 'द नोन'। घट सकता है कि कोई पैदा होते से ही जाग जाये; किसी को | जिन्हें हम जानते हैं, वे हमसे सबसे ज्यादा दूर हैं। जो आदमी सुबह के सूरज में ही सांझ दिख जाये; इधर दीया जला कि बुझने धन के पीछे पड़ा है वह ज्ञेय के पीछे पड़ा है, स्थूल के पीछे पड़ा का खयाल आ जाये। जितनी तीव्र मेधा होती है, उतनी धार्मिक है। आब्जेक्टिव, संसार उसके लिए सब कुछ है। धन इकट्ठा होती है।
करेगा, पद इकट्ठा करेगा, मकान बनायेगा–लेकिन वस्तुओं पर आज वे मेरे गान कहां हैं?
उसका आग्रह होगा। उससे थोड़ा जो भीतर की तरफ आता है, टूट गई मरकत की प्याली
वह ज्ञेय को नहीं पकड़ता, ज्ञान को पकड़ता है। वहां वृक्ष है। लुप्त हुई मदिरा की लाली
तुम वृक्षों को देख रहे हो। वृक्ष ज्ञान की आखिरी परिधि मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले
हैं-ज्ञेय। फिर थोड़ा इधर को चलो तो वृक्षों और तुम्हारे बीच
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