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दम के तारीक रस्ते में
पहुंचता कहीं भी नहीं। कोई मुसाफिर न राह भूले __ वर्तुलाकार जो घूमेगा, वह पहुंचेगा कैसे? मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी
___ इसलिए हमने जीवन को चक्र कहा है। गाड़ी के चाक की चिरागे-तुरबत जला रहा हूं। भांति, घूमता है, घूमता रहता है; कभी एक आरा ऊपर आता है, जीवन के रास्ते पर जिन्होंने अपने को परिपूर्ण मिटा दिया है, वे कभी दूसरा आरा नीचे चला जाता है लेकिन वस्तुतः कोई भेद ही केवल ऐसा प्रकाश बन सके हैं जिनसे भूले-भटकों को राह नहीं पड़ता। कभी क्रोध ऊपर आया, कभी मोह ऊपर आया; मिल जाये। जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह कभी प्रेम झलका, कभी घृणा उठी; कभी ईर्ष्या से भरे, कभी दूसरों को भटकाने का कारण बना है। और जिसने अपने को बड़ी करुणा छा गई; कभी बादल घिरे, कभी सूरज मिटा लिया, वह स्वयं तो पहुंचा ही है; लेकिन सहज ही, निकला-ऐसी धूप-छांव चलती रहती है। एक आरा ऊपर, साथ-साथ, उसके प्रकाश में बहुत और लोग भी पहुंच गये हैं। दूसरा आरा नीचे होता रहता है, और हम चाक की भांति घूमते
महावीर किसी को पहुंचा नहीं सकते; लेकिन जो पहुंचने के रहते हैं। लेकिन हम हैं वहीं, जहां हम थे। हमारे जीवन में यात्रा लिए आतुर हो वह उनकी रोशनी में बड़ी दूर तक की यात्रा कर नहीं है। तीर्थयात्रा तो दूर, यात्रा ही नहीं है। बंद डबरे की भांति सकता है।
हैं, जो सागर की तरफ जाता नहीं। यात्री को स्वयं निर्णय लेना पड़े। जाना है, तो प्रकाश के साथ डबरा डरता है। सागर में खो जाने का डर है। और डर सच है, संबंध बनाने पड़े।
| क्योंकि डबरा खोयेगा सागर में। लेकिन उसे पता नहीं, उसके अभी हमने जीवन-जीवन, जन्मों-जन्मों अंधेरे के साथ संबंध | खोने में ही सागर का हो जाना भी उसे मिलनेवाला है। बनाये हैं। धीरे-धीरे अंधेरे के साथ हमारे संबंध, संस्कार हो गये अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले हैं, स्वभाव हो गए हैं। अंधेरा हमें सहज ही आकर्षित कर लेता आदमी का रास्ता बड़ा अंधेरा है! है। एक तो रोशनी हमें दिखाई ही नहीं पड़ती, शायद अंधेरे में | अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले रहने के कारण हमारी आंखें रोशनी में तिलमिला जाती हैं; या मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी चिरागे-तुरबत जला रहा हूं। अगर दिखाई भी पड़ जाये तो भीतर बड़ा भय पैदा होता है। तो मैंने अपने जीवन को, अपने होने को तो बुझा दिया है अपरिचित का भय। नये का भय। अनजान का भय।
और अपनी मजार का दीया जला लिया है। चिरागे-तुरबत जला तो हम तो बंधी लकीर में जीते हैं-कोल्ह के बैल की तरह रहा हूं! जीते हैं। कोल्हू का बैल चलता बहुत है, दिनभर चलता है; | जिसे कवि ने चिरागे-तुरबत कहा है, उसी को महावीर निर्वाण
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