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जिन सूत्र भागः ।
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गीता के प्रेमी थे और गीता को बड़ी तल्लीनता से गनगनाते थे। बंद कर रहा है। उसने एक नया शब्द गढ़ा है: साइकोसोमेटिक, उन्होंने कहा कि मुझे कोई बेहोशी की दवा देने की जरूरत नहीं मनोशरीर। शरीर और मन, दो शब्द ठीक नहीं हैं; क्योंकि उससे है। मुझे मेरी गीता गुनगुनाने दो, तुम आपरेशन कर लो। डाक्टर | भ्रांति होती है कि जैसे दो चीजें हैं-मन और शरीर। राजी न थे; क्योंकि क्या भरोसा? लेकिन यह आदमी कोई मन और शरीर एक ही चीज है। शरीर स्थूलतम मन है; मन बेहोशी की दवा लेने को राजी न था और आपेरशन एकदम सूक्ष्मतम शरीर है। और दोनों के बीच में विचारों की तरंगों का जरूरी था, अन्यथा यह मरेगा। ऐसी हालत देखकर कि यह लेने | जगत है। लेकिन यह इकट्ठा है। समाधि की दशा में आदमी मन को राजी नहीं है, मौत तो होने ही वाली है, प्रयोग कर लेना उचित के बाहर होता है। ध्यान की दशा में मन शांत हो जाता है; है। डाक्टरों ने आज्ञा दी कि तुम अपनी गीता गुनगुनाओ। समाधि की दशा में मन के बाहर होता है। तब पहली दफे आत्मा घंटाभर आपरेशन में लगा। वे अपनी गीता गुनगुनाते रहे, का पता चलता है। आपरेशन हो गया और उन्हें पता भी न चला।
आरुहवि अंतरप्पा...। विचार में अगर तुम बहुत जोर से संयुक्त हो जाओ तो शरीर | 'तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, और तुम्हारे बीच संबंध दूर का हो जाता है।
अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।' तो जिन्होंने विचार के थोड़े-से प्रयोग किये हैं, वे इस निष्कर्ष बड़ा अनूठा सूत्र है। सारा योग इसमें आ गया। पर पहुंच जाते हैं कि हम शरीर नहीं हैं. विचार हैं। लेकिन विचार गरजिएफ के जीवन में एक उल्लेख है। वह अमरीका गया भी एक पर्त है। शरीर से गहरी है, लेकिन शरीर की ही है। था। उसे अपनी ध्यान-विद्यापीठ को चलाने के लिए पैसों की विचार भी पदार्थ हैं।
| जरूरत थी, तो उसने न्यूयार्क के सारे बड़े धनपतियों को निमंत्रित महावीर का सिद्धांत इस संबंध में बड़ा अजीब है। महावीर किया था। न्यूयार्क की जो सबसे ऊंची सोसाइटी, अभिजात कहते हैं, विचार भी पदार्थ है, मैटिरियल है, पुदगल है। विचार वर्ग, उसके चुनदे प्रतिनिधि मौजूद थे। गुरजिएफ की खबर तो के भी अणु होते हैं। शायद विज्ञान महावीर से जल्दी राजी हो | अमरीका में पहुंच गई थी। उस आदमी को देखने को लोग जायेगा; क्योंकि महावीर का बोध बड़ा साफ है। वे कहते हैं, उत्सुक थे। कोई पचास-साठ मित्रों का समूह था; स्त्रियां थीं, विचार के भी अणु हैं। वह भी कोई अपार्थिव चीज नहीं है, वह पुरुष थे। जिस व्यक्ति ने गुरजिएफ के संस्मरण लिखे हैं, उसने भी पार्थिव है। बड़ी सूक्ष्म है, लेकिन पार्थिव है।
लिखा है कि गुरजिएफ ने मुझे बुलाया इन लोगों से मिलने के विचार से भी कुछ लोग नीचे उतरते हैं। ध्यान में वैसी घड़ी पहले और मुझसे कहा कि तुम्हें जितने भी गंदे और अश्लील आती है, जब तुम विचारों को शांत कर लेते हो; जब विचारों की | शब्द आते हों अंग्रेजी के, मुझे बता दो। वह आदमी थोड़ा तरंगें कम होते-होते होते-होते खो जाती हैं, झील बिलकुल शांत चौंका। उसने कहा कि अश्लील शब्दों से क्या करना? क्योंकि हो जाती है, कोई विचार की तरंग नहीं होती, वचन नहीं होता, गुरजिएफ अंग्रेजी ठीक से जानता नहीं था। उसने कहा, तुम भीतर शब्द नहीं उठते, शब्दों में फल-फूल नहीं लगते, शब्द | फिक्र छोड़ो। तो जितने भी गंदे अश्लील शब्द उसे आते थे, बिलकुल शांत हो गये होते हैं।
उसने बता दिये। गुरजिएफ ने वे लिख लिये और याद कर उस निशब्द दशा में मन के साथ तादात्म्य हो जाता है। तब लिये। फिर गुरजिएफ जब बोलने गया उन मित्रों के बीच, तो आदमी सोचता है, यही मैं हूं। यह बड़ा प्यारा क्षण है-बड़ा थोड़ी देर उसने बातें कीं, फिर इसके बाद उसने कामवासना की शांत, बड़ा मौन! और आदमी सोचता है, यही मैं हूं। लेकिन बात शुरू की। फिर धीरे-धीरे तो कामवासना की बात को ऐसा यह भी सूक्ष्मतम शरीर की दशा है।
गहरा ले गया कि सिर्फ अश्लील और अभद्र शब्दों का ही आधुनिक मनोविज्ञान महावीर से राजी है। आधुनिक उपयोग करने लगा। और घड़ीभर में-जिसने संस्मरण लिखे हैं मनोविज्ञान कहता है, शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं। शरीर और उसने लिखा है-ऐसी हालत आ गई कि सारे लोग कामोत्तेजित मन ऐसे दो शब्दों का प्रयोग भी आधुनिक मनोविज्ञान धीरे-धीरे हो गये। भूल ही गये। स्त्रियां पुरुषों के साथ खेल में लग गईं,
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