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आत्मा परम आधार है
दफा भोजन करते। शरीर की जरूरत इतनी होती और भोजन उपाय करते हैं जिससे ज्यादा हो जाये। महावीर ने ऐसे उपाय इतना कम होता कि वह पूरा का पूरा पचा जाते।
किये कि उतना ही हो जितना प्रकृति की जरूरत है। मन से कुछ जैन कहते हैं, महावीर मल-मूत्र का त्याग नहीं करते; क्योंकि भी न जोड़ा जाये। तो स्वभावतः धीरे-धीरे उनकी सारी ग्रंथियां तीर्थंकरों को मल-मूत्र नहीं होता। मैं यह नहीं कहता। मैं यह | खुलती गईं। वह छोटे बच्चे की भांति या पशु की भांति हो गये। कहता हूं कि अगर तुम भी महीने में एकाध बार भोजन करोगे तो उनमें सरलता का आविर्भाव हुआ। निग्रंथ होने का यही अर्थ है। मल-मूत्र की जरूरत न रह जायेगी। शरीर पूरा पचा जायेगा। | वे ऐसे सरल हो गये कि उनमें एक भी तिरछी लकीर न बची। शरीर के पचाने की जरूरत इतनी होगी कि तुमने जो लिया है। दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, उसको कहते हैं सरल उसमें से कुछ भी छोड़ने का उपाय न होगा। महावीर ने बारह रेखा। और दो बिंदुओं के बीच जो इरछी-तिरछी यात्रा करनी वर्षों की साधना में कहते हैं, मुश्किल से तीन सौ साठ दिन पड़े, गोल, घुमावदार, वह है ग्रंथि। भोजन किया। तो हर बारह दिन में एक दिन भोजन पड़ता है। महावीर सीधी सरल रेखा की भांति हैं। हम बड़े इरछे-तिरछे वह भोजन इतना कम था, और वह भी एक बार और वह भी | हैं। हम कहते कुछ, करते कुछ। हम करते कुछ और अपने को महावीर खड़े-खड़े करते, बैठते भी न थे। क्योंकि महावीर समझाते कुछ। हम दूसरे को ही धोखा देते हों, ऐसा नहीं है। हम कहते, बैठो तो थोड़ा ज्यादा भोजन आदमी कर लेता है। अपने को भी धोखा देते हैं। छोटी-छोटी चीजों से फर्क पड़ते हैं।
| मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ लखनऊ में ठहरा हुआ था। गर्मी तुमने कभी खयाल किया? खड़े-खड़े भोजन करके देखो एक के दिन और भरी दुपहरी में बिजली चली गई, तो वह बहुत दफा। 'बफे' महावीर ने शुरू किया। ज्यादा मेहमान हों, झल्लाया। उसे जो भी चुनी हुई गालियां आती थीं, उसने दी। भोजन कम हो, तो बफे। बिठालना मत, बिठालो तो फिर ज्यादा फिर वह भागा, नीचे गया, होटल के नीचे से एक पंखा खरीद खाते हैं। खड़े-खड़े शरीर का आसन ऐसा होता है कि पेट तना लाया। पंखा उसने किया नहीं कि टूटा नहीं। दो टुकड़े हो गये। होता है; बैठने से पेट शिथिल हो जाता है, ज्यादा जगह हो जाती फिर तो जो वह बहुत ही नाराज हुआ। फिर तो वह गालियां है। अब किसी को कहो दौड़ते-दौड़ते भोजन करो तो और कम | विशेष रूप से सुरक्षित रखता है, वे भी उसने दीं। फिर वह हो जायेगा, स्वभावतः।
भागा, नीचे गया। यह सोचकर कि कहीं कोई झगड़ा-फसाद न महावीर खड़े-खड़े भोजन करते। पात्र में भोजन नहीं करते हो, मैं भी उसके पीछे गया कि अब यह कुछ...। पर नीचे जो थे-करपात्री थे हाथ में ही भोजन करते थे। अब हाथ में जरा देखा, वह...। अच्छा हआ कि गया। पंखेवाले ने उससे कहा भोजन करके देखो! दो-चार ग्रास के बाद ही तुम सोचोगे, अब कि इसमें क्या आश्चर्य की बात है, इसमें क्यों बौखलाये जा रहे बहुत हो गया। वह प्रक्रिया कोई ऐसी नहीं कि बहुत देर जारी हो? नसरुद्दीन ने कहा, एक ही बार किया और पंखा टूट गया, रखने का सुख मालूम पड़े। धूप में, सड़क पर खड़े हुए, हाथ में, और तुम कहते हो आश्चर्य की बात नहीं! उस पंखेवाले ने नग्न, जो थोड़ा-बहुत मिल गया, वे ले लेते। बैठते भी न। एक लखनवी अंदाज में कहा, हुजूर! यह लखनऊ का नफासत, बार! वह भी दस-बारह दिन में एक बार। यह पूरा का पूरा नजाकत का पंखा है। आपको करना नहीं आता। आपने लट्ठ भोजन पच जाता। यह पूरा का पूरा भोजन शरीर में लीन हो | की तरह घुमा दिया होगा। हुजूर! लखनऊ में तो पंखे को सामने जाता। तो संभव है, मलमूत्र पैदा होने की जरूरत न रह जाये। रख लेते हैं और सिर को हिलाते हैं। फिर सिर भला टूट जाये,
ऐसे नैसर्गिक ढंग से जीना उन्होंने शुरू किया कि मन से कोई पंखा कभी नहीं टूटता। आप जरा लज्जत बाधा न हो।
| आये हैं तो थोड़े लखनऊ का रिवाज भी सीखिये। हम तो ऐसा उपाय करते हैं...तुमने देखा, जब बहुत मित्रों को |
| हम तरकीबें खोज लेते हैं। हम तर्क खोज लेते हैं। जीवन बुला लो घर पर, तो ज्यादा खाना हो जाता है। रेडियो चला दो, उलटा भी जा रहा हो तो भी हम उसे सीधा मानने के ढंग खोज गीत-संगीत बजा दो, तो ज्यादा खाना हो जाता है। हम तो ऐसे | लेते हैं।
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