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RL आत्मा परम आधार है ।
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गौरीशंकर पर खड़े हो गये तो तुम गौरीशंकर से बड़े हो गये। खड़ा रहता है लेकिन भय दोनों के भीतर है। बहादुर भय के
तो महावीर का विश्लेषण बड़ा महत्वपूर्ण है। महावीर कहते बावजूद भी चला जाता है युद्ध में; कायर भय अनुभव होते ही हैं, आत्मा से बड़ा कुछ भी नहीं है; क्योंकि सभी कुछ अंततः भाग खड़ा होता है। एक आगे जाता है, एक पीछे जाता है; आत्मा ही पायेगी-मोक्ष, निर्वाण, ब्रह्म। तो जो पानेवाला है लेकिन भय दोनों में है। भय से कोई बाहर नहीं है। भय से वही मालिक है, वही निरालंब, वही परम आधार है। तो-महावीर कहते हैं-वही बाहर होता है, जो आत्मा को __'परद्रव्य-आलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह-रहित उपलब्ध हुआ; क्योंकि आत्मा अमरत्व है। वहां फिर कोई मृत्यु तथा निर्भय है।'
नहीं। वहां पहुंचते ही पता चलता है कि न तो यह मर सकती है और निर्भय समझनेवाला तत्व है। हम भयभीत हैं। हम कंप | चेतना, न कभी मरी है, न जन्मी है-अजन्मी, अनादि, अमृत। रहे हैं, चौबीस घंटे भयभीत हैं। यह भय क्या है? बहाने कुछ तब सारा भय शून्य हो जाता है। तब सारे भय गिर जाते हैं। भी हों। और हम अपने को किसी भी तरह समझा लेते हों, कुछ आत्मा को जाने बिना भय के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं तरकीबें खोज लेते हों-कभी भय है कि प्रियजन न खो जाये; है। और भय के बाहर गये बिना कैसे दुख के बाहर जाओगे? कभी भय है बीमार न हो जायें; कभी भय है वृद्ध न हो जायें, बूढ़े कैसे भय के बाहर गये बिना चिंता के बाहर जाओगे, संताप के न हो जायें; कभी भय है, धन न खो जाये; कभी भय है, पद न बाहर जाओगे? कंपते ही रहोगे। खो जाये, प्रतिष्ठा न खो जाये, नाम-यश न खो जाये, आदमी का होना एक गहन कंपन है। आत्मा को जानते ही कुल-परंपरा न खो जाये-हजार भय हैं, लेकिन सबके गहरे में कंपन ठहर जाता है। स्थिति-प्रज्ञता पैदा होती है। ज्योति अकंप अगर खोजेंगे तो मृत्यु का भय है : कहीं मैं न खो जाऊं! हो जाती है, निर्धूम जलती है; जैसे ऐसे किसी घर में हो जहां हवा
धन को भी हम इसीलिए पकड़ते हैं कि धन के सहारे स्वयं के के झोंके न आते हों-अकंप जलती है। तब पहली दफा जीवन होने में सहायता मिलती है; अन्यथा धन के लिए कौन धन को | में वसंत आता है। उसके पहले जो वसंत जाने वे तो पतझड़ के पकड़ता है? कौन इतना पागल है? लेकिन धन हो तो थोड़ा ही आगमन के आने के उपाय थे। उसके पहले तो जवानी जो बल होता है-बीमारी होगी, बुढ़ापा होगा तो धन रक्षा करेगा। | जानी वह बुढ़ापे का ही चरण था। उसके पहले तो जो जन्म कोई शत्रु होगा तो धन रक्षा करेगा। हम पद-प्रतिष्ठा को पकड़ते मिला, वह मौत की ही शुरुआत थी। आत्मा में आकर, स्वयं में हैं, क्योंकि उससे भी आत्म-रक्षा होती है। यश को पकड़ते हैं, आकर, पहली दफे वसंत आता है-ऐसा वसंत, जिसके पीछे कुल को पकड़ते हैं, समाज के अंग बनते हैं, धर्म के अंग बनते हैं, राजनीति के अंग बनते हैं-उस सबमें बहुत गहरे में | नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल आत्मरक्षा की भावना है। सब तरफ से मौत हमें पीड़ित किये है: बहारे-नौ के कदमों की सदा है। मरना होगा!
नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल रोज कोई मरता है। हमारे पैर और हिल जाते हैं। रोज कोई बहारे-नौ के कदमों की सदा है। मरता है : जड़ें और उखड़ जाती हैं। रोज कोई धक्के दे जाता है। अब बेड़ियों की झंकार नहीं मालूम होती है वसंत में। यह तो ये तूफान रोज आते ही हैं मौत के। आज कोई गया, कल कोई वसंत-आगमन की पगध्वनि है, बेड़ियों की झंकार नहीं। इसके गया-परसों हमें भी जाना होगा, यह घबड़ाहट है!
पहले तो वसंत भी आया तो बांध गया था। इसके पहले तो प्रेम तो आदमी इस अवस्था में कभी अभय को उपलब्ध हो ही नहीं भी आया तो बंधन बन गया था। इसके पहले तो जो भी आया सकता। जिनको तुम बहादुर कहते हो, वे भी अभय को उपलब्ध था, कारागृह ही सिद्ध हुआ था। अब पहली दफा वसंत आता नहीं होते। कायर नहीं हैं वे। इससे तुम यह मत समझना कि है। ऐसे फूल खिलते हैं जो फिर कभी मुहते नहीं। ऐसे फूल भयभीत नहीं हैं। कायर और बहादुर दोनों के भीतर भय है। खिलते हैं जो मुझाने को नहीं खिलते।। कायर भय की मानकर भाग खड़ा होता है; बहादुर नहीं मानता, 'वह आत्मा निग्रंथ है, निराग है, निशल्य है. सर्वदोषों से
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