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जिन सूत्र भाग: 1
गया या मरने के करीब था, मरणासन्न था, तब बुद्ध और महावीर का आविर्भाव हुआ। अब इस मरते आदमी के साथ उनको किसी भी तरह का संबंध जोड़ना खतरनाक था । यह तो मर ही रहा था। इसके साथ संबंध जोड़ने का अर्थ था, तुम पहले से ही मौत से जुड़ गये। स्वभावतः उन्होंने नये शब्द खोजे ।
तुम देखो, जैनों ने संस्कृत भाषा तक का उपयोग न किया ! शब्दों की तो बात अलग; उस भाषा में भी बोलने में खतरा था, क्योंकि भाषा के सब संबंध थे। अब अगर संस्कृत का महावीर उपयोग करते तो उपनिषदों से ऊंचा गीत और क्या गा पाते ? पराकाष्ठा हो गई थी। संस्कृत ने अपनी आखिरी ऊंचाई पा ली थी। संस्कृत ने शिखर छू लिया था; अब इसके पार जाने का कोई उपाय न था । इस मंदिर पर कलश चढ़ चुका था। तो महावीर ने संस्कृत का उपयोग न किया। महावीर ने प्राकृत का उपयोग किया। संस्कृत पंडित की भाषा थी, सुसंस्कृत की, अभिजात्य की। महावीर ने दीन की, गरीब की, लोकजन की भाषा का उपयोग किया।
ध्यान रखना, जब भी नया धर्म आता है तो उनके द्वारा आता है, जो पुराने धर्म के कारण दलित थे, पीड़ित थे। जो पुराने धर्म के कारण प्रतिष्ठित थे वे तो नये धर्म को क्यों चुनेंगे? उनका तो पुराने धर्म के साथ बड़ा संबंध है। उनके तो बड़े स्वार्थ हैं। तो स्वभावतः ब्राह्मण आंदोलित होगा महावीर के विचारों से, यह तो संभव न था । क्षत्रिय आंदोलित हो सकता था, वैश्य आंदोलित हो सकता था, शूद्र आंदोलित हो सकता था । क्षत्रिय भी बहुत आंदोलित नहीं हुआ, क्योंकि उसके भी संबंध बहुत गहरे ब्राह्मण 1. से जुड़े थे। ब्राह्मण सबके ऊपर था। लेकिन वस्तुतः तो क्षत्रिय ही ऊपर था, जिसके हाथ में तलवार है। क्षत्रिय के कारण और आज्ञा से ब्राह्मण ऊपर रह सकता था । नाममात्र को ब्राह्मण ऊपर था, वस्तुतः तो क्षत्रिय ऊपर था । तुम कितनी ही बात करो कि संतों की महिमा थी; महिमा थी, लेकिन उस महिमा को भी जब तक राजा आकर चरण न छूता, कौन महिमा थी? राजा आकर चरण छूता था तो संत की महिमा थी। तो संत दीवाने रहते थे कि कितने राजा किसके पास आते हैं। तो क्षत्रिय भी प्रतिष्ठित था । इसलिए जैन धर्म अगर बनियों का धर्म हो गया, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। वैश्य सर्वाधिक प्रभावित हुए। शूद्र बहुत कम प्रभावित हुए, क्योंकि प्रभावित होने की भी थोड़ी समझ तो चाहिए
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क्षत्रिय के स्वार्थ थे, ब्राह्मण का तो कोई उपाय न था कि वह जैन बने; इस बनने में कोई सार न था । अभी भी तुम देखते हो, हिंदुस्तान में जो लोग ईसाई बनते हैं, कोई बिरला, सिंघानिया, साहू कोई ईसाई बनते हैं? ईसाई बनता है शूद्र, गांव का गरीब, आदिवासी। जिनका निहित स्वार्थ है, वे किसलिए ईसाई बनेगें ? ईसाई तो वह बनता है जो हिंदू धर्म से पीड़ित है, परेशान है । जो हिंदू धर्म उसे नहीं दे सका है, उसका आश्वासन ईसाइयत देती है।
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तो महावीर और बुद्ध दोनों ने कहा, कोई वर्ण नहीं है। लेकिन शूद्र तो इतना दलित था कि उसे ये शब्द भी समझ में न आ सकते थे; उसको तो शास्त्र पढ़ने की मनाही थी । उसको तो कोई शिक्षा भी न थी। इसलिए स्वभावतः ब्राह्मण आ नहीं सकता था, क्षत्रिय को आने का कोई कारण न था— उसके हाथ में तलवार और बल था । शूद्र समझ नहीं सकता था। और शुद्र को भीतर लाने में खतरा भी था, क्योंकि वह वैश्य नहीं घुसने देता था शूद्र को । क्योंकि वह छिड़कता था । उसकी भी धारणा तो हिंदू की थी। अगर क्षत्रिय आता तो वैश्य स्वीकार कर लेता; वह ऊपर का था; ब्राह्मण आता तो भी स्वीकार कर लेता । शूद्र से उसे भी अड़चन थी; वह उससे भी नीचे था। इसलिए वैश्य शूद्र को घुसने न देगा। इसलिए जैन धर्म वैश्यों का धर्म हो गया, दुकानदारों का धर्म हो गया। स्वभावतः महावीर को इनकी भाषा का उपयोग करना पड़ा - लोक - भाषा का ।
बुद्ध ने भी वही किया। उन्होंने भी लोक भाषा का उपयोग किया। उन्होंने पाली चुनी। क्योंकि वे प्राकृत चुनते तो महावीर के साथ बंध जाते।
इसे थोड़ा सोचना चाहिए। महावीर बुद्ध से कोई तीस साल उम्र में बड़े थे। महावीर पहले आ गये थे। तीस साल वे काम कर चुके थे।
ब्राह्मण संस्कृत बोलते थे, महावीर ने प्राकृत चुनी थी; बुद्ध को दोनों उपाय न रहे थे । एक ही क्षेत्र में थे दोनों, लेकिन बुद्ध ने पाली चुनी, ताकि साफ-साफ व्याख्या हो सके, भेद हो सके। भाषा से बड़ा भेद और किसी चीज से पैदा नहीं होता।
तुम जानते हो, जब कोई आदमी तुम्हारी भाषा नहीं समझता, तो तुम अजनबी हो गये, एकदम अजनबी हो गये । पास-पास बैठे हो और हजारों मील का फासला हो गया। क्योंकि आदमी
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