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जिन सूत्र भाग: 1
आखिरी प्रश्न :
तेरे गुस्से से भी प्यार, तेरी मार भी स्वीकार
चाहे खुशी दो कि दो गम, दे दो खुशी-खुशी करतार तेरी धूप हो कि छांव, मुझको दोनों हैं स्वीकार तेरा सब कुछ मुझे पसंद, तेरा न भी नहीं इनकार।
शुभ है, ऐसी ही भाव की दशा भक्त की दशा है। और जिसको ऐसे स्वीकार का भाव आ गया; अस्वीकार को भी स्वीकार करने की क्षमता आ गई; 'नहीं' में भी दंश न रहा; हार में भी कांटे न चुभे; सुख आये कि दुख, दोनों को जिसने परमात्मा का उपहार समझकर स्वीकार कर लिया, उसका प्रसाद मान कर स्वीकार कर लिया- उसकी मंजिल ज्यादा दूर नहीं है। उसके पैर मंजिल के करीब आने लगे। उसका रास्ता पूरा होने के करीब आने लगा।
इस भाव - दशा को सम्हालना । इस भाव - दशा को धीरे-धीरे गहराना। यह तुम्हारे रोएं रोएं में समा जाये। यह तुम्हारी धड़कन धड़कन में बस जाये ।
और मैं तुमसे कहता हूं, दीवानगी से बड़ी कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। क्योंकि जो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को अस्वीकार, उनके जीवन में दुख ही दुख भर जाता है। तुम्हारे अस्वीकार करने से दुख थोड़े ही जाता है, दुगना हो जाता है। कांटा तो चुभा ही है, पीड़ा तो हो ही रही है - तुम अस्वीकार करते हो, उससे पीड़ा और सघन हो जाती है। कांटा चुभा है और तुम स्वीकार कर लेते हो, तुम कहते हो, 'प्रभु की कोई मर्जी होगी! जरूर किसी कारण से चुभाया होगा ।'
जिनको हर हालत में खुश और शादमां पाता हूं मैं
बायजीद निकलता था एक रास्ते से, पत्थर से चोट लग गई, वह गिर पड़ा, पैर से खून निकलने लगा ! उसने हाथ उठाये
उनके गुलशन में बहारे-बेखिजां पाता हूं मैं ।
जो हर हाल में खुश हैं, उनके जीवन में वसंत आता है और आकाश की तरफ और प्रभु को धन्यवाद दिया कि 'धन्यवाद, पतझड़ कभी नहीं आती।
वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें
मेरे मालिक! तू भी खूब खयाल रखता है!' उसके एक भक्त ने पूछा, 'यह जरा जरूरत से ज्यादा हो गई बात। अतिशयोक्ति हुई जा रही है। खून निकल रहा है, पत्थर की चोट लगी है— धन्यवाद का कारण कहां है ? '
हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे।
बायजीद ने कहा, 'पागलो, फांसी भी हो सकती थी। उसका खयाल तो देखो! अपने फकीरों का खयाल रखता है। जरा-सी चोट से बचा दिया। मैं जैसा आदमी हूं, उसकी तो फांसी भी हो जाये तो कम है। मेरे पाप, मेरे गुनाह तो देखो !'
तो पैर में लगी चोट और बहता लहू भी अहोभाग्य हो गया। बायजीद तीन दिन से भूखा था। एक गांव में रुके। वह सांझ प्रार्थना जब करता था तो रोज कहता था, 'प्रभु! जो भी मेरी जरूरत होती है, तू सदा पूरी कर देता है।' उस दिन भक्त जरा नाराज थे, तीन दिन से भूखे थे। किसी गांव में ठहरने को जगह न मिली। लोगों ने रुकने न दिया। लोग विरोध में थे। फिर भी उस रात उन्होंने कहा, अब आज देखें, आज यह बायजीद क्या
अगर तुम्हारे पास ऐसी प्रेम की भाव- दशा उठ रही है, ऐसी पहली झलकें आनी शुरू हुई हैं कि सुख और दुख दोनों को तुम प्रभु की अनुकंपा मान लो, तो फिर जल्दी ही, तुम्हारे पास वैसे दिल का निर्माण हो जायेगा ।
हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे ! वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें !
फिर तुम्हारी आंख परमात्मा को देख ही लेगी। यही तो अभिलाषी की आंख की परीक्षा है । सुख को तो सभी स्वीकार कर लेते हैं। उससे कुछ पता नहीं चलता । दुख को भी जो स्वीकार कर लेता है, उससे ही पता चलता है। फूल गिरें, सभी मान लेते हैं, और प्रसन्न हो लेते हैं। लेकिन जबे कांटे जीवन में आयें तब भी जो मुस्कुराता रहता है...
वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें।
आई वह आंख, वह अभिलाषी नेत्र, प्रभु के दर्शन करने की क्षमता वाले नेत्र...।
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हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे।
एक पागलपन आयेगा, घबड़ाना मत। यह पागलों की ही बात है। बुद्धिमान तो ठीक-ठीक को स्वीकार करते हैं। बुद्धिमान तो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को इनकार करते हैं; फूल चुनते हैं, कांटे अलग करते हैं। यह तो दीवानों की बात है कि दोनों को स्वीकार कर लेते हैं।
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