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जिन सत्र भागः1
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बेफिक्री से मार। क्योंकि आत्मा तो अमर है। न हन्यते हन्यमाने लोगों ने खोजबीन करनी शुरू की कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शरीरे! शरीर के मारने से वह नहीं मरती। तू फिक्र छोड़! यह तो पैर में लगने से सिर में कोई परिणाम हुआ है। तो फिर सिरदर्द मिट्टी है, गिरेगी, गिर जायेगी। लेकिन जो इसके भीतर छिपा है, वाले लोगों को उसी पैर के स्थान पर तीर चुभाने से फायदा देखा वह तो रहेगा और रहेगा।
गया। और सिरदर्द के बीमार भी ठीक हो गए उसी जगह तीर कृष्ण बिलकुल ठीक कह रहे हैं, आत्मा मरती नहीं। महावीर चुभाने से। तो फिर बिंदु खोजे गए अकुपंचर के, सात सौ बिंदु कुछ और बात प्रवेश करते हैं। महावीर कहते हैं, हिंसा करने के शरीर में। तो कुछ बिंदु हैं जिनको दबाने से कुछ बीमारियां ठीक अध्यवसाय से...हिंसा करने के विचार से, भाव से, कर्म का हो जाती हैं। कुछ बिंदु हैं जिनको दबाने से कुछ और बीमारियां बंध होता है। फिर कोई जीव मरे या न मरे...। किसी के मरने से | ठीक हो जाती हैं। तो शरीर विद्युत का मंडल है। उसमें एक तरफ हिंसा नहीं होती; तुमने मारना चाहा, इससे हिंसा होती है। से विद्युत को दबाने से कहीं दूसरी तरफ विद्युत में परिणाम होते
कृष्ण बिलकुल ठीक कहते हैं कि काट डालो, कोई मरेगा | हैं। बड़ा रहस्यमय है। लेकिन अकुपंचर काम करता है। नहीं; क्योंकि आत्मा मरणधर्मा नहीं है। लेकिन महावीर कहते अब सवाल यह है कि जिस आदमी ने तीर मारा था, उसने पाप हैं, तुमने काट डालना चाहा! कटा कोई या नहीं कटा, यह किया या पुण्य ? क्योंकि जीवनभर का सिरदर्द चला गया। सवाल नहीं है; तुमने काटना चाहा, तुम्हारी उस चाह में हिंसा | अगर हम फल को देखें, तब तो पुण्य किया। लेकिन अगर है। फिर कोई मरा न मरा, यह बात अप्रासंगिक है। तुमने मारना | उसके भाव को देखें, तो तो पाप ही है। क्योंकि वह तो मारना चाहा था, तुम फंस गए। तुम्हारी मारने की चाह ने बीज बो चाहता था। वह कोई इसका सिरदर्द ठीक करना नहीं चाहता दिया। तुम दुख पाओगे। तुम्हें दुख मिलेगा। इसलिए नहीं कि | था। उसने तो मारना चाहा था। इसलिए उसने तो हिंसा की। तुमने लोग मारे, क्योंकि लोग तो मरे ही नहीं, लेकिन तुमने यह बात अप्रासंगिक है कि यह आदमी ठीक हो गया। इससे मारना चाहे। वस्तुतः हिंसा घटती है या नहीं घटती है, यह उसका कोई संबंध नहीं है। यह तो दुर्घटना है। सवाल नहीं है। गहरा सवाल यही है कि तुम्हारी आकांक्षा मारने तो तुम्हारा कृत्य फल के द्वारा निर्धारित नहीं होता कि पाप है या की थी। कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि तुम्हारी आकांक्षा पुण्य है, तुम्हारे अभिप्राय के द्वारा निर्धारित होता है, इन्टेशन। कुछ थी, हो कुछ जाता है।
| कभी ऐसा भी हो सकता है, बुरे अभिप्राय से ठीक घट जाये, ऐसा हुआ, चीन में कोई पांच हजार साल पहले इस तरह | और कभी ऐसा भी हो सकता है कि ठीक अभिप्राय से बुरा घट अकुपंचर की विद्या का जन्म हुआ। एक आदमी को जिंदगी भर जाये। लेकिन फल से निर्णय नहीं होता; निर्णय तुम्हारे अभिप्राय से सिरदर्द था। वह बड़ा तकलीफ में पड़ा था। वह बड़ा परेशान से होता है-तुम्हारे अंतर्तम में तमने क्या चाहा था। कभी ऐसा था। सब इलाज कर चुका था, कोई इलाज नहीं होता था। कोई भी हो सकता है कि तुम कुछ भला करने गए थे और बुरा हो दवा नहीं मिलती थी। कोई चिकित्सक ठीक नहीं कर पाता था। | गया। तो भी वह पाप नहीं है। कभी तुम बुरा करने गए थे और पत्थर के बोझ की तरह उसका सिर चौबीस घंटे भारी था। और भला हो गया, तो भी वह पाप है। जैसे बिजली कौंधती हो, ऐसे उसके सिर में तड़फन थी। वह न | महावीर का विश्लेषण फल पर नहीं ले जाता। कृष्ण और बैठ सकता था, न काम कर सकता था। जीना उसका दूभर हो महावीर दोनों राजी हैं कि आत्मा मरती नहीं। फिर भी महावीर गया था। आत्महत्या करने का उपाय किया था तो लोगों ने करने | कहते हैं, मारने की आकांक्षा, मारने की आकांक्षा में हिंसा है। न दिया। कोई दुश्मन था उसका, किसी से झगड़ा हो गया, उस मारने की आकांक्षा ही बंधन का कारण है। दुश्मन ने एक तीर उसे मारा। वह तीर उसके पैर में लगा और पैर धन नहीं बांधता। धन तुम्हारे चारों तरफ पड़ा रहे, लेकिन धन में तीर के लगते ही सिरदर्द चला गया। वह चिकित्सकों के पास को पकड़ने की, परिग्रह की आकांक्षा बांधती है। पत्नी, स्त्री नहीं गया। उसने कहा, 'यह हुआ क्या? यह तीर पैर में लगा और बांधती, भोगने की कामना बांधती है। ऐसा ठीक से देखोगे तो उसी क्षण दर्द चला गया।' ऐसे अकुपंचर का जन्म हुआ। तब सारा जाल भीतर है, बाहर नहीं।
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