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जिन सूत्र भाग: 1
क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक है । वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता है । वह तुम्हें चुनौती देता है । वह तुम्हें बुलावा देता है, प्रतिस्पर्धा
का अवसर देता है।
अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध का भाव पैदा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन
तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान याद किया है। ऋषभ कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए जैनों के पहले तीर्थंकर हैं। तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती पहुंचाए गए।
सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा।
निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है। इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी प्रगाढ़ है । और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है ! राहत का कोई उपाय नहीं । महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं है । वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी बीमारी है; अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ। तो महावीर उस मूर्तिभंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा । इसलिए स्वभावतः उस परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित किया । वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन-धर्म का अध्ययन करने पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का । तेईस तो करीब-करीब पुराण- कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो
जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी हिंदुओं की परंपरा | जैन वेद विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं | मानते - मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब तो वे भी परंपरावादी हैं।
लेकिन जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं ! तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही उठना है । तुम्हें कोई ले जा न सकेगा ! महावीर यह भी नहीं कहते कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा — अपने ही पैरों से ।
महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ । वे कहते हैं, आदेश में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और जाओ ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं । इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते आदेश नहीं । उपदेश का मतलब है : मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी । न मानो तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। | लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है।
तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का
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