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मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो
बनाकर छोड़ जाओ और कितने ही धन की राशियां लगा जाओ, जाये और तुम जगत को खुली आंख से देख लो - आंख जिस इससे क्या फर्क पड़ता है ? पर सपनों की पर्त न हो; आंख जिस पर सपनों की धूल न हो; ऐसे चैतन्य से दर्पण स्वच्छ हो और जो सत्य है वह झलक जाये – तो तुम्हारी जिंदगी में पहली दफा, वह यात्रा शुरू होगी जो जिनत्व की यात्रा है। तब तुम जीतने की तरफ चलने लगे। सपने में तो हार ही हार है।
जिंदगी तो गई और गई। जिंदगी तो राख हो गई। मकान बना आये, खंडहर बनेंगे। बड़ी दौड़-धूप की थी, बड़ी तिजोड़ियां छोड़ आये - कोई और उनकी मालकियत करेगा। तुम्हारे हाथ तो खाली हैं। इससे तो बेहतर होता कि तुम बैठे ही रहते और तुमने कुछ न किया होता, तो कम से कम तुम उतने पवित्र तो रहते जितने जन्म के समय थे। यह तो सारी आपाधापी तुम्हें और भी अपवित्र कर गई। यह तो तुम और भी शराब से भरकर विदा हो रहे हो। यह तो तुम और जहर ले आये।
जिंदगी से कमाया तो कुछ भी नहीं, एक नयी मौत और कमाई, फिर जन्मने की वासना कमाई । यह कोई कमाना हुआ? जिसे तुम जिंदगी कहते हो, महावीर उसे स्वप्न कहते हैं । और जिसे तुम जागरण कहते हो, वह जागरण नहीं है; वह सिर्फ खुली आंख देखा गया सपना है।
हम दो तरह के सपने देखते हैं: एक, रात जब हम आंख बंदकर लेते हैं; और एक तब जब सुबह हम आंख खोल लेते हैं। लेकिन हमारा सपना सतत चलता है। महावीर के हिसाब से सपने से तो तुम तभी मुक्त होते हो, जब तुम्हारा मन ऐसा निष्कलुष होता है कि उसमें एक भी विचार की तरंग नहीं उठती। जब तक तरंगें हैं, तब तक स्वप्न है। जब तक तुम्हारे भीतर कुछ चित्र घूम रहे हैं और तुम्हारे चित्त पर तरंगें उठ रही हैं- 'यह हो जाऊं, यह पा लूं, यह कर लूं, यह बन जाऊं - तब तक तुम स्वप्नों से दबे हो । फिर तुम्हारी आंख खुली है या बंद, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता । तुम बेहोश हो । महावीर के लिए तो होश तभी है, जब तुम्हारा चित्त निर्विचार हो ।
तो जागरण का अर्थ समझ लेना । जागरण का अर्थ तुम्हारा जागरण नहीं है। तुम्हारा जागरण तो नींद का ही एक ढंग है। महावीर कहते हैं जागरण चित्त की उस दशा को, जब चैतन्य तो हो लेकिन विचार की कोई तरंग में छिपा न हो; कोई आवरण न रह जाये विचार का; शुद्ध चैतन्य हो; बस जागरण हो। तुम देख रहे हो और तुम्हारी आंख में एक भी बादल नहीं तैरता -- किसी कामना का, किसी आकांक्षा का। तुम कुछ चाहते नहीं । तुम्हारा कोई असंतोष नहीं है। तुम जैसे हो, उससे तुम परम राजी हो । एक क्षण को भी तुम्हारा यह राजीपन, तुम्हारा यह स्वीकार जग
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जिन यानी जीतने की कला। जिनत्व यानी स्वयं के मालिक हो जाने की कला। हमने और सबके तो मालिक होना चाहा है—धन के, पत्नी के, पति के, बेटे के, राज्य के, साम्राज्य
हमने और का तो मालिक होना चाहा है, एक बात हम भूल गये हैं, बुनियादी, कि हम अभी अपने मालिक नहीं हुए। और जो अपना मालिक नहीं है, वह किसका मालिक हो सकेगा ! वह गुलामों का गुलाम हो जायेगा ।
पहला सूत्र :
सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । 'इस जगत में ज्ञान सारभूत अर्थ है ।'
इस जगत में बोध सारभूत अर्थ है । अवेयरनेस ! सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था। तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं । ।
'अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो। जो पुरुष सोते हैं, उनका अर्थ नष्ट हो जाता है।'
जीवन में हमारे भी अर्थ है, कोई मीनिंग है। हम भी कुछ पाना चाहते हैं। हां, हमारे भी कुछ बहाने हैं। अगर आज मौत आ जाये तो तुम कहोगे, 'ठहरो! कई काम अधूरे पड़े हैं। न मालूम कितनी यात्राएं शुरू की थीं, पूरी नहीं हुईं। ऐसे बीच में उठा लोग तो अर्थ अधूरा रह जायेगा । अभी तो अर्थ भरा नहीं । अभी तो अभिप्राय पूरा नहीं हुआ। रुको।'
सिकंदर, नेपोलियन साम्राज्य बनाने में जीवन का अर्थ देख रहे हैं। कोई कुछ और करके जीवन का अर्थ देख रहा है। लेकिन महावीर कहते हैं: इस जगत में बोध सारभूत अर्थ है । और कुछ भी नहीं—न धन, न पद, न प्रतिष्ठा ।
'जो पुरुष सोते हैं उनका यह अर्थ नष्ट हो जाता है।'
अर्थ तुम्हारे भीतर है और तुम्हीं सो रहे हो तो अर्थ का जागरण कैसे होगा ? तुम्हारे जागने में ही तुम्हारे जीवन का अर्थ जागेगा । मेरे पास अनेक लोग आते हैं। वे कहते हैं, जीवन का अर्थ
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