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जिन सूत्र भाग: 1
और तुम्हारी स्वाभाविक नियति तुम्हें दूर वनों और उपवनों में ले जाये कि पहाड़ों में ले जाये, तो ठीक है। लेकिन, तुम संसार को छोड़कर नहीं जा रहे हो। तुम्हारे छोड़ने में कोई प्रयास नहीं है। तुम सहज अपने स्वभाव के अनुकूल, जो तुम्हें ठीक पड़ रहा है, उस तरफ जा रहे हो। इसमें फर्क है।
एक आदमी जो बाजार को छोड़कर भागता है, जो बाजार से डरकर भागता है, उसका अभी बाजार में अर्थ खोया नहीं है। अगर अर्थ खो जाये तो डर कैसा? और एक आदमी, जो बाजार में अर्थ पाता ही नहीं, इसलिए चला जाता है। ये दोनों जाते हुए मालूम पड़ेंगे, लेकिन दोनों के भीतर क्रांतिकारी फर्क है।
ऐसा समझो कि एक रस्सी पड़ी है। तुम गुजरे पास से, तुमने सांप समझ लिया और तुम भागे। तुम पूरब की तरफ जा रहे थे, तुम पूरब की तरफ ही भागे, लेकिन घबड़ाकर भागे। क्योंकि सांप में तुम्हें भय मालूम पड़ा । फिर एक और आदमी आ रहा है। उसने भी गौर से देखा और उसे सांप नहीं दिखाई पड़ा, रस्सी ही दिखाई पड़ी। उसको भी पूरब जाना है, वह भी पूरब जा रहा है। लेकिन जो घबड़ाकर भागा है उसमें और जो रस्सी को | देखकर जा रहा है, बुनियादी फर्क है। दोनों एक ही दिशा में जा रहे हैं। लेकिन जो भाग गया है उसके भागने के पीछे अभी अंधकार है, अंधेरा है, अज्ञान है। और जो जागकर जा रहा है, उसके जाने में प्रकाश है, ज्योति है ।
'इस जगत में ज्ञान आदि सारभूत अर्थ हैं। जो पुरुष सोते हैं उनका अर्थ खो जाता है। सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो। धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर, अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है। ऐसा भगवान महावीर ने वत्स देश के राजा- शतानीक की बहन जयंति से कहा था।'
'प्रमाद को कर्म (आस्रव) और अप्रमाद को अकर्म (संवर) कहा है। प्रमाद, होने से मनुष्य अज्ञानी होता है; प्रमाद के न होने से ज्ञानी होता है।'
तुमने कभी खयाल किया ! बाल तुम्हारे शरीर से जुड़े हैं, काट देते हो; फिर तो तुम्हारे नहीं रह जाते! नाखून काट देते हो, फिर तो तुम्हारे नहीं रह जाते! बच्चा जैसे ही पैदा हो गया, मां की देह के बाहर आ गया - तुम्हारा क्या रह गया ? 'मेरा' - भाव गिर जाये, ममत्व गिर जाये - फिर तुम बच्चों की फिक्र कर देते हो, उनकी साज-संवार कर देते हो; लेकिन इस साज-संवार में अब कोई राग नहीं है। और इस साज संवार के द्वारा तुम अपनी
तुम जो भी कर रहे हो, उसका सवाल नहीं है - तुम क्यों कर महत्वाकांक्षाओं को, अपने अहंकार को, अपनी अतृप्त रहे हो, उसका सवाल है। अभीप्साओं को पूरा नहीं करना चाहते। तुम बच्चों को साथ दे
यही करना और ढंग से भी किया जा सकता है, जागकर भी देते हो कि ठीक है, संयोग मिल गया, तुम असहाय हो; मुझसे
'प्रमाद को कर्म...' प्रमाद यानी मूर्च्छा । प्रमाद यानी सोया-सोयापन । प्रमाद, जैसे कोई भीतरी नशे में तुम पड़े हो । 'प्रमाद को कर्म कहा है ... ।'
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किया जा सकता है— तब कर्म नहीं होगा ।
समझो। तुम अपने बच्चों में लिप्त हो, राग में डूबे हो। तुमने बड़ी महत्वाकांक्षाएं बच्चों के कंधों पर रख दी हैं । तुम जो नहीं कर पाये जिंदगी में, चाहते हो तुम्हारे बच्चे कर लेंगे। अगर मां-बाप पढ़े-लिखे हों तो बच्चों को बुरी तरह पढ़ाते-लिखाते हैं। क्योंकि उनकी एक कमी रह गई, वह खलती है। कम से कम अपने में न हो सकी, अपने बच्चों में पूरी हो जाये। जो मां-बाप जिंदगी भर तड़फते रहे, किसी बड़े पद पर न हो सके, वे अपने बच्चों को पहले से ही तैयार करते हैं कि हम तो चूक गये, तुम मत चूक जाना! अब तुम बच्चों को तैयार कर रहे हो जीवन के युद्ध के लिये। यह एक स्थिति है।
फिर एक दूसरा आदमी है। उसके भी बच्चे हैं। लेकिन जागा हुआ आदमी है। जागते ही 'मेरे हैं', यह तो खयाल समाप्त हो जाता है; 'बच्चे हैं, यह खयाल रह जाता है। 'मेरे हैं', यह तो प्रमाद का हिस्सा है, मूर्च्छा का हिस्सा है।
मेरा क्या है? खाली हाथ हम आते हैं, खाली हाथ हम जाते हैं । और बच्चे मेरे क्या हो सकते हैं? भला मेरे द्वारा आये हों, मैं मार्ग बना होऊं; लेकिन आये तो कहीं अज्ञात से हैं ! मेरे चौराहे से गुजरे होंगे, इससे मेरे नहीं हो जाते। मेरे पास हैं, इससे मेरे नहीं हो जाते। मेरे शरीर का सहारा लेकर बड़े हो रहे हैं, इसलिए मेरे नहीं हो जाते। मेरे जीवाणु के माध्यम से प्रगट हुए हैं, इसलिए भी मेरे नहीं हो जाते।
चैतन्य की अपनी यात्रा है। ये जो बच्चे तुम्हारे पास हैं, ये भी अपनी-अपनी यात्रा से आये हैं। इस जीवन में संयोग... .तुमसे गुजरे हैं, तुम्हारे नहीं हैं।
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