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| देख लेता ! और अब मेरा क्या होगा? उनके रहते-रहते मैं मुक्त न हो सका, अब मेरा क्या होगा ? अब तो गहन अंधकार है और दीया भी बुझ गया। क्या उन्होंने कुछ मेरे लिए संदेश छोड़ा है? तो राहगीरों ने कहा, हां। आखिरी समय में उन्होंने आंख खोली; उन्होंने कहा, गौतम यहां नहीं है; लौटे तो उसे इतनी बात कह | देना कि तू पूरी नदी तो पार कर गया, अब किनारे को पकड़कर क्यों रुक गया है ?
कहते हैं, उसी क्षण गौतम ज्ञान को उपलब्ध हुआ। क्या कहा महावीर ने उसके लिए? क्या संदेश छोड़ा कि तू पूरी नदी तो पार कर गया- संसार छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, पत्नी छोड़ दी, घर-द्वार छोड़ दिया, सब छोड़ दिया, सब तरफ से राग हटा लिया - अब तूने राग मुझ पर जमा लिया ! किनारे को पकड़ लिया। अब तू कहता है, गुरु... । यह भी छोड़ दे, नहीं तो नदी तो पार कर आया, अब किनारे को पकड़कर अटका है, तो बाहर कैसे निकलेगा? अब यह भी छोड़। जब सब छोड़ा है तो सभी छोड़। अब इतना भी अपवाद मत रख।
उसी क्षण गौतम को बोध आया कि अरे, मैं महावीर को पकड़ने के कारण ही रुक गया हूं! यह मोह छूटता नहीं, इसलिए रुक गया हूं ।
तो जैन भाषा अमोह की भाषा है। वहां आशीर्वाद नहीं है। डूब जाये कि सलामत रहे किश्ती मेरी
न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ।
- चाहे डूब जाये, चाहे बचे नाव; लेकिन महावीर कहते हैं, किसी और की तरफ हाथ बढ़ाना मत। न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ। किसी सदगुरु की तरफ हाथ मत बढ़ाना। आशीर्वाद मत मांगना। डूब जाए तो भी ठीक है, पार हो जाये तो भी ठीक है, लेकिन भीख मत मांगना ।
महावीर का पथ सम्राटों का पथ है, भिखारियों का नहीं। मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से । - स्वभाव मेरा तूफान का है।
मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं।
— और मैं प्रकृति की मुक्त निगाह, मुक्त दृष्टि हूं । तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से साहिल की तो बात ही नहीं करता, किनारे की तो बात ही नहीं करता। बात तो दूर,
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प्रेम से मुझे प्रेम है
अपनी कल्पना को भी मैं किनारे की बात से भ्रष्ट नहीं करता। सहारे की बात ही गलत है। बे-सहारा! जब तक तुम इतने बे-सहारा न हो जाओ कि तुम्हें लगे अब अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा, और कोई पैर नहीं हैं; अब अपनी ही बुद्धि को जगाना होगा, और कोई सहारा नहीं है; और अपने ही प्राणों का उत्कर्ष करना होगा, कोई और आशीर्वाद, कोई और सांत्वना नहीं है... । तुमने कभी सोचा ?
आस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि जब नाव डूब जाती है किसी की और आदमी सागर में तड़फड़ाता है तो जैसी उसकी दशा होती है, जब तक तुम्हारी न हो जाये तब तक तुम कुछ करोगे न । नाव डूब गई। सागर की उत्तंग तरंगें, किनारे का कोई पता नहीं - तब क्या दशा होती है? तब तुम सोचते हो कि आयेगा किसी का आशीर्वाद या उसको बचाना होगा बचायेगा ? नहीं, तब तुम प्राणपण से, अपनी समग्र ऊर्जा से बचने की चेष्टा में लग जाते हो; तुम सागर से लड़ने लगते हो। उस समय न तो विचार रह जाते हैं। कहां विचार की जगह है? सुविधा कहां है? फुर्सत किसे है उस समय विचार करने की? जीवन संकट में है । न विचार रह जाते हैं। कितनी बार ध्यान किया था और न लगा था; उस दिन लग जाता है। अब कोई विचार नहीं रह जाते । न कोई कामना उठती, न कोई वासना उठती, न धन, न स्त्री, न संसार, कुछ भी नहीं, सब खो जाता है। सिर्फ एक स्वयं को बचाने की — वह भी भाव की दशा होती है, विचार नहीं होता । और तुम जूझने लगते हो सागर से ।
महावीर कहते हैं, ऐसी ही तुम्हारी स्थिति होनी चाहिए। ऐसी ही स्थिति है, लेकिन तुमने कल्पना की नावें बना रखी हैं और तुमने कल्पना के सहारे ले रखे हैं। उन सहारों के कारण तुम चेष्टा नहीं कर पाते जितनी कि कर सकते थे। इसलिए वे कहते हैं, हटा लो सारी सांत्वनाएं।
महावीर ने अपने साथ चलनेवालों के सब आश्रय छीन लिये। उनको बे-आसरा कर दिया, ताकि उनके भीतर जो सोए हुए प्राणों की ऊर्जा है वह इस चुनौती में उठ जाये, ज्योतिर्मय हो उठे। मुकाबिल में तेरे लाखों खुदा इसने बनाए हैं
उन्हें
पूजा है, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं।
आदमी ने असली परमात्मा की जगह न मालूम कितने परमात्मा बनाए हैं। उन्हें पूजा, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं।
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