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जिन सत्र भाग: 1
महावीर कहते हैं, असली परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। न तो बंदगी से कुछ होगा, न गीतों से कुछ होगा, न पूजा-अर्चा के थालों से कुछ होगा। तुम जीवन के तथ्य को समझो। इस सत्य को समझो कि भवसागर में पड़े हो और डूब रहे हो । स्थिति को ठीक से समझ लोगे तो तुम स्वयं को बचाने में लग जाओगे। और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई और बचा नहीं सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण - भावना से बचना, अशरण- भावना में ध्यान करना। किसी की शरण जाने की बात मत सोचना। समर्पण नहीं, संकल्प |
तीसरा प्रश्न: आपने कहा कि लोक व्यवहार में आकर प्रज्ञापुरुषों के शब्द अपना अर्थ खो बैठते हैं। और आपने बताया कि महावीर ने 'अहिंसा', जीसस ने 'प्रेम' और सूफियों ने 'इश्क' शब्द अपनाए। भगवान! वर्तमान शताब्दि आप कौन-सा शब्द हमें देना पसंद करेंगे ?
मैं तो प्रेम के प्रेम में हूं। उस शब्द से बहुमूल्य मुझे कोई और दूसरा शब्द मालूम नहीं होता । लाख विकृतियां हो गई हों, फिर भी उस शब्द में जादू है। अहिंसा मरा मरा शब्द लगता है। उससे औषधि की बास आती है। अहिंसा - अस्पताल में जैसी बास आती है, वैसी बास आती है। कुछ नहीं करना है, कुछ रोकना है, कुछ निषेध – प्रेम जैसे फूल नहीं खिलते । प्रेम शब्द हृदय में कुछ और ही गूंज लाता है, कोई कमल खिल जाते हैं, कोई द्वार खुलते हैं। अहिंसा से ऐसा पता चलता है, कुछ मजबूरी, कुछ कर्तव्य - विधायकता नहीं है, पाजिटीविटी नहीं है । 'नहीं' में होती भी नहीं ।
प्रेम में 'हां' है, स्वीकार है। प्रेम में एक अहोभाव है, गीत है, नृत्य है। तो लाखों विकृतियां हो गई हों प्रेम में, तो भी मैं प्रेम को चुनता हूं। क्योंकि प्रेम जिंदा है और उन विकृतियों को अलग करने की क्षमता है उसमें । अहिंसा शब्द में कोई प्राण नहीं हैं। तो भला उसमें महावीर ने जब प्रयोग किया तो कोई विकृतियां न रही हों, अब तो हजारों विकृतियां हो गई हैं। और तकलीफ यह है कि अहिंसा मुर्दा शब्द है। इसलिए उन विकृतियों को छिटकाकर फेंक नहीं सकता। प्रेम फेंक सकता है। प्रेम जीवंत है।
ऐसा ही समझो कि एक आदमी मरा हुआ पड़ा है, साफ-सुथरे
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वस्त्रों में पड़ा है; बिलकुल धुले-धुलाए वस्त्र हैं, शुभ्र वस्त्र हैं; धूल का कण भी नहीं है। और एक जिंदा आदमी बैठा है; पसीने से तरबतर है; धूल भी चिपक गई है; दिनभर मेहनत की है; स्नान की जरूरत है। और तुम अगर मुझसे पूछो कि किसको चुनोगे, तो मैं कहूंगा, मैं जिंदा को चुनता हूं। पसीना है, नहाने से छूट जायेगा। धूल जम गई है वस्त्रों पर, साबुन उपलब्ध है। मगर आदमी जिंदा है ! यह मुर्दा आदमी, माना कि न इसमें पसीना निकलता है, न इस पर धूल जमी है, यह कांच के ताबूत में रखा रह सकता है, ऐसा ही साफ-सुथरा बना रहेगा - पर इसका करोगे क्या? इससे होगा क्या ?
अहिंसा मुर्दा शब्द है। प्रेम जीवंत है। निश्चित ही प्रेम के साथ पसीना भी है। पसीने में कभी-कभी बदबू भी आती है। पसीने पर धूल भी जम जाती है। आदमी गंदा भी हो जाता है, लेकिन यह सब जिंदगी के लक्षण हैं। जहां गंदगी हो सकती है, वहां स्वच्छता लायी जा सकती है। ध्यान रखना, जहां गंदगी हो ही नहीं सकती, वहां स्वच्छता कैसे लाओगे? वहां तो मौत आ चुकी । तुम उस बच्चे को पसंद करोगे जो मुर्दे की तरह एक कोने में बैठा रहता है! मां-बाप पसंद करते हैं अकसर, क्योंकि उनके लिए कम उपद्रव का कारण होता है। गोबर - गणेश ! बैठे हैं। कभी-कभी पूजा करनी हो तो गणपति जी की पूजा कर लो, बाकी वे बैठे रहते हैं। मां-बाप को ठीक लगते हैं, लेकिन बाद में पछताएंगे। वे ऐसे ही बैठे रहेंगे। फिर एक उपद्रवी, नटखटी बच्चा है, दौड़ता है, हाथ-पैर भी तोड़ लाता है, खून भी निकल आता है, कपड़े भी गंदे कर आता है, कीचड़ में सना हुआ घर आ जाता है । मैं तो इसी को चुनूंगा। यह जिंदा तो है ! इससे कुछ होने की संभावना है।
अहिंसा में कुछ न हो, इसकी चेष्टा है। प्रेम में कुछ हो, इसकी चेष्टा है। मैं जीवन के पक्ष में हूं, मौत चाहे कितनी ही साफ-सुथरी हो। और मौत बड़ी साफ-सुथरी चीज है। झंझटें तो जीवन में हैं, मौत में क्या झंझट है ? वह तो सब झंझटों का अंत है। तो भी मैं मौत को न चुनूंगा, मैं जीवन को ही चुनूंगा।
दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का यह पैगामे बाहर आया तो दीवानों के नाम आया। - वे जो बहुत होशियार हैं, गणित से जीते हैं, समझदारी समझदारी ही जिनके जीवन में है और दीवानगी
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