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हला प्रश्न : मुझ से न समर्पण होता है और न मुझ | कर-करके नर्क ही बनाया, और कुछ न बनाया-जब यह पीड़ा । में संकल्प की शक्ति ही है; बीच में उलझा हूं। सघन होगी, जब तुम पूरे असहाय मालूम पड़ोगे, उस असहाय
-आपने तो मेरे लिए बड़ी झंझट खड़ी कर दी है। क्षण में ही समर्पण घटित होता है। वह तुम्हारा कृत्य नहीं है। वह हाल यह है कि आपसे दूरी भी बरदाश्त नहीं होती, क्या करूं? | तुम्हारे कृत्य की पराजय है। हारे को हरिनाम! जब तुम्हारी हार बेइख्तियार मांग ली तेरे सितम की खैर
इतनी प्रगाढ़ हो गई कि अब जीत की कोई आशा भी न बची; उठते नहीं हैं हाथ अब दस्ते-दुआ के बाद।
जब तुम्हारी हार अमावस की अंधेरी रात हो गई कि अब एक
किरण भी अहंकार की शेष नहीं रही, अब तुम्हें लगता नहीं है कि संकल्प तो किया जाता है-समर्पण होता है। इसलिए ऐसा तुम कुछ कर पाओगे-पराजय की परिपूर्णता में समर्पण घटित प्रश्न तुम उठा ही न सकोगे कि समर्पण नहीं होता। समर्पण | होता है। तुम्हारी शक्ति की बात नहीं है। इसलिए ऐसा प्रश्न तो बुनियाद पूछा है कि 'मुझसे न समर्पण होता है, न संकल्प की शक्ति ही से ही गलत है कि समर्पण की मझमें शक्ति नहीं है।
मुझमें है।' दूसरी बात तो ठीक हो सकती है कि संकल्प की इसे ठीक से समझना।
शक्ति न हो; पहली बात ठीक नहीं हो सकती। और अगर समर्पण कोई कृत्य नहीं है, जो तुम कर सको। समर्पण तो ऐसी पहली बात ठीक नहीं है तो दूसरी भी पूरी ठीक नहीं हो सकती। चित्त की दशा है, जहां तुम पाते हो कि अब मुझसे तो कुछ भी तुम कहते हो, संकल्प की मुझमें शक्ति नहीं यह भी तुम कहते नहीं होता। जरा भी आशा बनी रही कि मुझसे कुछ हो सकता है हो, मानते नहीं। ऐसा तुम जानते नहीं। कहीं भीतर अभी भी तो समर्पण न होगा; तो तुम्हारा अहंकार बचा है। तुम सोचते हो, | आशा बची है। कोई किरण तुम सम्हाले हुए हो। तुम सोचते हो, अभी संभव है कि मैं कुछ कर लूं। लेकिन जब तुम्हारा अहंकार | इस बार नहीं हुआ, अगली बार होगा; आज नहीं हुआ, कल हो सभी तरफ से जराजीर्ण होकर बिखर जाता है; जैसे कोई पुराना जायेगा। आज हार गया, वह अपनी शक्ति की कमी के कारण भवन गिर गया हो; जैसे कोई पुराना वृक्ष, जड़ टूट गई, उखड़ नहीं; परिस्थिति अनकल न थी। आज हार गया, क्योंकि भा गया हो—जिस दिन तुम्हारा अहंकार परिपूर्ण रूप से गिर जाता | ने साथ न दिया। आज हार गया, क्योंकि मैंने चेष्टा ही पूरी न है और तम्हें लगता है: मेरे किये कछ भी न होगा, क्योंकि मेरे की। यदि मैं चेष्टा परी करता, ठीक सम्यक महर्त चनता. तो किये अब तक कुछ न हुआ। जब तुम्हारे करने ने बार-बार हार | बराबर जीतता। खायी; जब तुमने किया और हर बार असफलता हाथ लगी; | सभी हारे हुए हार को समझा लेते हैं। हार को स्वीकार कौन जब कर-करके तुमने सिर्फ दुख ही पाया, और कुछ न पाया; | करता हूं! हारा हुआ समझा लेता है कि लोग विरोध में थे। हारा
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