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वासना ढपोरशंख है
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बनाकर पहनने लगे, तो कुछ विकृति हो गई। कहीं स्वभाव से दुख देने में कुछ अर्थ ही नहीं है। दुख देना तो जीवन के अवसर च्युत हो गया यह आदमी।
| को व्यर्थ करना है, खराब करना है। जहां संगीत उठ सकता था दुख में रस, चाहे वह अपने दुख में हो और चाहे दूसरे के दुख आनंद का, उस ऊर्जा को तुमने दुख में बदल लिया। जहां फूल में हो, हिंसा है। इसलिए अगर तुम मुझ से पूछो तो महावीर के | खिल सकते थे, वहां कांटे बिछा लिये। पीछे चलने वाले जैन मुनियों में निन्यानबे प्रतिशत तो महावीर के | ‘जीव का वध अपना वध है।' ऐसे महावीर परमात्मा की दुश्मन हैं। वे हिंसा में रस ले रहे हैं; यद्यपि उन्होंने हिंसा का रुख | भावना को भीतर से ले आते हैं। मंदिर गिरा देते हैं, परमात्मा को अपनी तरफ बदल लिया है।
बचा लेते हैं। क्योंकि जब मेरे देने से तुम तक दुख पहुंचता है यह भी थोड़ा सोचने जैसा है।
और फिर मुझ पर लौट आता है, तो इसका अर्थ एक ही हुआ कि महावीर कहते हैं, दूसरे को भी दुख दो तो भी अपने पर लौटता मैं और तुम जुड़े हैं; कोई सेतु है। कुछ आवागमन हो रहा है। है-जरा वर्तुल बड़ा होता है।
| कुछ लेन-देन चल रहा है। हमारे फासले और फर्क ऊपर-ऊपर अगर तुमको मैं कोड़ा मारूं तो भी कोड़ा मेरी तरफ लौटेगा, होंगे, भीतर कहीं गहराई में हम जड़े हैं। तभी तो मैं तम्हें दुख दे थोड़ा समय लगेगा; क्योंकि तुम तक की दूरी जाना, फिर पाता हूं और फिर दुख मेरे पास लौट आता है। बीच में कोई लौटना। फिर हो सकता है, तुम भी सीधा-सीधा न भेजो, केयर दीवाल होती, कोई खाई होती, खड्ड होता, सेतु न होता, हमें आफ भेजो; तो लंबी यात्रा होगी। कभी जन्म भी लग जाते हैं। जोड़नेवाला कोई तत्व न होता, तो ठीक था; दुख कैसे लौटता? कभी जन्मों के बाद लौटेगा कोड़ा। मैं भी भूल चुका होऊंगा कि जाता है, आता है। तरंगें जाती हैं, लौट आती हैं। अर्थ हुआ कि कब तुम्हें दिया था लेकिन आएगा।
| कोई गहराई में हम एक ही सागर के हिस्से हैं। उस सागर का फिर जिसको मेसोचिस्ट हम कहते हैं, वह ज्यादा कशल है। नाम ही परमात्मा है। वह कहता है, इतनी लंबी यात्रा क्या करनी है; कोड़ा अपने हाथ लेकिन महावीर उसे बाहर स्थापित नहीं करते; तुम्हारे भीतर में लेकर खुद ही को मार लेना उचित है। वह ज्यादा नगद है। स्थापित करते हैं। क्योंकि बाहर जैसे ही परमात्मा स्थापित किया मगर हर हालत में कोड़ा अपने पर ही पड़ता है। तो दुख चाहे तुम जाता है, लोग पूजा और प्रार्थना में लग जाते हैं। लोग जीवन का दूसरे को दो, चाहे अपने को दो-तुम हिंसक हो।
रूपांतरण नहीं करते, पूजा-प्रार्थना करते हैं। वे परमात्मा से तुमने देखा होगा काशी के रास्तों पर कांटों पर लेटे हुए कहते हैं, हे प्रभु! जीवन को बदलो! बिगाड़ते जीवन को खुद हैं त्यागियों को-वे मैसोचिस्ट हैं, वे हिंसक हैं। वे रस ले रहे हैं और आशा रखते हैं, कोई और बदलेगा। तो फिर ऐसा परमात्मा खुद को सताने में।
भी पुराने ढांचे को चलाने का ही आधार बन जाता है। क्योंकि तुमने ऐसे साधुओं को देखा होगा, जो महीनों का उपवास कर | जब तक तुम न बदलोगे, कोई न बदलेगा। अगर कोई परमात्मा रहे हैं। वे दुखवादी हैं। वे अपने को सता रहे हैं। वे हिंसा में होता तो उसने कभी का बदल दिया होता। तुम कितने दिन से मजा ले रहे हैं। तुमने ऐसे साधुओं के बाबत सुना होगा, जिन्होंने प्रार्थना कर रहे हो! तुम्हारे हाथ कब से जुड़े हैं नमाज में! तुम अपनी आंखें फोड़ लीं। वे दुखवादी हैं। तुमने ऐसे साधुओं के कितने दिन से झुके बैठे हो मूर्तियों के समाने! कुछ भी तो नहीं संबंध में सुना होगा जिन्होंने अपनी जननेंद्रियां काट ली हैं। वे होता। सदियां बीत गईं, जनम-जनम तुमने प्रार्थना की है, पूजा दुखवादी हैं।
की है-कुछ भी तो नहीं होता। तुम वहीं के वहीं हो। आदमी दो हिस्सों में बंटा है: दूसरे को दुख दो या अपने को देखो पूजा करनेवाले को! रोज चला जाता है मंदिर, रोज लौट दुख दो, मगर दुख दो।
आता है—वही का वही है! कोई भी तो रूप बदलता नहीं। हां, स्वस्थ आदमी सब भांति की हिंसा का त्याग करता है। यह एक और खतरा पैदा हो जाता है। अब वह आश्वस्त हो जाता है महावीर के स्वास्थ्य की परिभाषा है। स्वस्थ व्यक्ति अहिंसक कि ठीक है, प्रभु खयाल रखेगा। और जो उसे करना है, किये होता है। न वह दूसरे को दुख देता न स्वयं को दुख देता, क्योंकि चला जाता है। जो करता है, उससे जीवन निर्मित होगा; पूजा से
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