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वासना ढपोरशंख है
होगा, पागल हुआ जाता होगा! इतने लोग हैं, कौन प्रार्थना यहां जैनों को भी कुछ बात समझ लेनी जैसी है। भ्रांतियां करता है? जो प्रार्थना करते हैं, वे भी परमात्मा के लिए प्रार्थना हमारी ऐसी हैं कि सत्य भी हमारे हाथ लग जाएं तो हम उन्हें नहीं करते; वे भी कुछ और मांगने के लिए करते हैं। जब काम | विकृत कर लेते हैं। जैन सोचते हैं कि वे जीव-दया कर रहे हैं, निपट जाता है तो भूल जाते हैं। दुख में याद आ जाती है, सुख में | दूसरे पर दया कर रहे हैं। महावीर कहते हैं, जिसने जीव पर दया विस्मरण हो जाता है। दुख में विस्मरण नहीं होता, सुख में | की उसने अपने पर दया की। बस इतना ही। नहीं तो एक नया विस्मरण हो जाता है। परमात्मा को तो वे भी याद नहीं करते हैं। | अहंकार, एक नया भूत पैदा होता है कि मैं जीव-दया कर रहा हूं, तो परमात्मा तो पागल हुआ जा रहा होगा, अगर तुम्हारी | कि मैं अहिंसक हूं, कि मैंने देखो कितने जीवों को बचाया! एक प्रार्थनाओं से उसे प्रसन्न होने की अपेक्षा है तो!
| नई अकड़ पैदा होती है। इतना ही कहो कि तुमने अपने को दुख महावीर कहते हैं, ऐसा कोई परमात्मा नहीं है। यह भी तुम्हारे | देने से स्वयं को बचाया। तुमने स्वार्थ साधा। तुमने आत्महित भलावे हैं। तुम सत्य को नहीं देखना चाहते कि तमने दुख साधा। इसमें घोषणा और विज्ञापन करने की कोई भी जरूरत फैलाया, इसलिए दुख पा रहे हो, तो तुम कोई न कोई बहाना नहीं है। तुम ऐसी तो घोषणा नहीं करते कि आज मैंने अपना सिर खोजते हो बाहर। कभी समाज-व्यवस्था में, कभी भाग्य में, दीवाल से नहीं तोड़ा। तुम ऐसा तो नहीं कहते कि आज मैंने पैर कभी प्रकृति के दोषों में, कभी त्रिगुणों में, कभी परमात्मा की में छुरा नहीं मारा। तुम ऐसा कहोगे तो लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, प्रार्थना-पूजा में लेकिन तुम बाहर कोई सहारा खोजते हो। तुम इसमें क्या बड़ा किया? यह तो सभी करते हैं। एक बात नहीं देखना चाहते कि तुम जुम्मेवार हो।
अगर तुमने जीव-हिंसा नहीं की, तो कुछ पुण्य किया, ऐसा जीवन का सबसे बड़ा कठोर सत्य यही है-इसे स्वीकार कर मत सोचो। इतना ही कि अपने पर दया की। यह सूत्र बड़ा लेना कि जो मुझे हो रहा है, उसके लिए मैं जुम्मेवार हूं। बड़ी बहुमूल्य है। नहीं तो एक नया पागलपन शुरू होगा। पहले तुम उदासी आएगी। मैं जुम्मेवार हूं-अपने दुखों के लिए, अपनी सोचते थे, दूसरे तुम्हें दुख दे रहे हैं; अब तुम सोचने लगोगे कि चिंताओं के लिए! दूसरे पर जुम्मा टाल के थोड़ी राहत मिलती तुम दूसरों को सुख दे रहे हो। लेकिन अगर तुम दूसरों को सुख दे है। कम से कम इतनी तो राहत मिलती है कि दूसरे कर रहे हैं, मैं सकते हो तो दुख भी दे सकते हो। मूल भ्रांति तो मौजूद रही। क्या करूं! असहाय होने का मजा तो आ जाता है।
और अगर तुम दूसरों को सुख-दुख दे सकते हो तो दूसरे तुम्हें महावीर ने कहा, यह धोखाधड़ी अब और मत करो। यह तुमने | क्यों नहीं दे सकते? तर्क तो वहीं का वहीं रहा, कहीं हटा न।। किया था, वही लौट रहा है। यह तुमने दिया था, उसकी ही | महावीर चाहते हैं कि तुम इस गहन सत्य को एक बार प्रगाढ़ता प्रतिध्वनि है। और अगर तुमने यह न देखा तो तुम फिर वही किए से अंगीकार कर लो कि तुम जो करोगे, वह अपने ही साथ कर चले जा रहे हो जिसके कारण तुम दुखी हो। तो जाल फैलता ही | रहे हो। दूसरे निमित्त हो सकते हैं, बहाने हो सकते हैं। लेकिन चला जायेगा।
अंततः, अंततोगत्वा, सभी किया हुआ अपने साथ किया हुआ यह दुष्चक्र का अंत हीन होगा। चाक घूमता ही रहेगा। सिद्ध होता है। 'जीववहो अप्पवहो!' जीव का वध अपना ही वध है। जब 'जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया भी तुमने किसी को मारा, अपने को ही काटा और मारा। है...।' 'जीवदया अप्पणो दया होइ।' और जीव पर जब भी तुमने | महावीर कहते हैं, धार्मिक व्यक्ति स्वार्थी व्यक्ति है। उसे दया की, किसी पर भी, तुमने अपने पर ही दया की।
समझ में आ गया कि अपने साथ क्या करना है। उसने अपने 'अतः आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिंसा का | साथ शिष्टाचार सीख लिया। अधार्मिक व्यक्ति अशिष्ट है; परित्याग किया है।' यह वचन समझना। 'आत्महितैषी' अपने साथ ही अशिष्टता कर रहा है। अधार्मिक व्यक्ति अज्ञानी आत्मकाम–अत्त कामेहिं। स्वार्थ का जो अर्थ होता है, वही। है; अपने को ही काट रहा है, चोट पहुंचा रहा है। सोचता है, आत्महितैषी, अपना हित चाहनेवालों ने...।
दूसरे को चोट पहुंचा रहे हैं। उस सोचने में, उस सपने में, अपने
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