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तुमने खयाल किया, इस वैपरीत्य में ही तुम्हारी गति है। अगर दोनों पैर एक साथ उठा लो, गिरोगे, बुरी तरह गिरोगे, हाथ-पैर तोड़ लोगे। फिर कभी चल न पाओगे। अगर दोनों पैर जमाकर खड़े हो जाओ तो भी न चल पाओगे। चलना हो तो एक पैर समर्पण का एक पैर संकल्प का । पक्षी उड़ता है, दो पंख | चाहिए – दोनों अलग-अलग दिशाओं में फैले हुए। एक ही पंख से तो पक्षी डूब जायेगा ।
एक फकीर, सूफी फकीर को उसके शिष्य ने पूछा कि 'क्या अकेले संकल्प से पहुंचना न हो सकेगा या अकेले समर्पण से?' वह फकीर नदी के किनारे खड़ा था। वे नदी के पार जाने की तैयारी कर रहे थे। उस फकीर ने कहा, आओ रास्ते में उत्तर दे | दूंगा | नाव में दोनों बैठ गये। साधारणतः तो शिष्य ही नाव को चलाता था, लेकिन उस दिन गुरु ने कहा, मैं ही नाव चलाता हूं। उसने एक पतवार से नाव खेनी शुरू कर दी। अब नाव दो पतवार से चलती है। एक पतवार से तो नाव गोल-गोल घूमने लगी, वर्तुलाकार चक्कर मारने लगी। उसका शिष्य हंसने लगा। उसने कहा, 'आप क्या मजाक कर रहे हैं? आपको मालूम नहीं चलाना, मुझे दें। कहीं एक पतवार से नाव चली है ? ऐसे तो हम यहीं चक्कर खाते रहेंगे।'
तो गुरु ने कहा, एक पतवार का नाम समर्पण है और दूसरी पतवार का नाम संकल्प। और जिसने एक से चलाने की कोशिश की, वह मुश्किल में पड़ेगा।
अब तुम इसे ऐसा समझो – बड़ा विरोधाभास लगेगा – समर्पण करना हो तो भी तो मूलतः संकल्प चाहिए। संकल्पहीन कैसे समर्पण करेगा ? समर्पण कोई छोटी घटना है ? किसी के चरणों में अपने को छोड़ देना, कोई छोटा निर्णय है ? इससे बड़ा और कोई निर्णय हो सकता है? हवाओं के सहारे सूखे पत्ते की भांति अपने को छोड़ देना, इससे बड़ा कोई और निर्णय हो सकता है? इतना अभय, इतना गैर-डांवांडोल चित्त ... तो समर्पण का भी पहला कदम तो संकल्प है। और संकल्प की भी आत्यंतिक परिपूर्णता समर्पण में है। क्योंकि करते-करते तो तुम थकोगे ही। कभी तो ऐसी घड़ी आनी चाहिए जब करने से छुटकारा हो—उसी को तो हम मोक्ष कहते हैं । करा, किया, बहुत किया, जन्मों-जन्मों तक किया, कर-करके ही तो हमने अपने जीवन को उलझा लिया है। इसलिए इस
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संकल्प की अंतिम निष्पत्ति: समर्पण
उलझाव के मूल आधार को हम कर्म कहते हैं । कर्म का अर्थ है : जो किया। और हम कहते हैं, कर्म से कैसे छुटकारा हो ?
लोग मुझसे पूछते भी हैं कभी-कभी आकर, कर्म से कैसे छुटकारा हो ? लेकिन मुझे लगता है, उन्हें ठीक याद नहीं रहा कि कर्म का अर्थ क्या होता है— करने से कैसे छुटकारा हो ? अकर्ता -भाव का कैसे जन्म हो ? कब ऐसी घड़ी आयेगी जब मैं सिर्फ हो सकूं और करने की कोई रेखा न बचे?
करने को कुछ भी न रहे, होना परिपूर्ण हो जाये – उसको ह मोक्ष कहते हैं । मोक्ष का अर्थ है : जहां तुम हो, विश्व के साथ ऐसी संगति में, विश्व के साथ ऐसे तारतम्य में, विश्व के साथ ऐसे संगीत में लयबद्ध; कि तुम कुछ भी नहीं करते, विश्व ही करता है; तुम उसके साथ बहते हो।
संकल्प का भी अंतिम परिणाम समर्पण है; और समर्पण की भी शुरुआत, प्रथम चरण संकल्प है। इसलिए मैं तुमसे कहूंगा, तुम अभी संकल्प की ही चिंता कर लो।
दूसरा प्रश्न: आपका कहना है कि प्यास है तो जल भी होगा ही। यही नहीं, प्यास इसलिए है कि कहीं जल है । और आपने तो यहां तक कहा कि प्यासा ही जल को नहीं खोजता, जल भी प्यासे को खोजता है । तब जानना चाहता हूं कि प्यासे और पानी के बीच कभी-कभी इतनी दूरी मालूम देती है कि प्यासा पानी तक नहीं जा पाता; या कि प्यासा अंधा और बहरा है कि न उसे जल दीखता है, न उसका कलकल नाद सुनाई देता है। और कभी-कभी तो जल के बीच रहकर भी आदमी यासार जाता है। मुझे अपने बारे में कुछ ऐसा ही लगता है। कृपापूर्वक मुझे मार्ग-निर्देश दें।
निश्चित ही यह खोज एकतरफा नहीं है। एकतरफा हो तो कभी पूरी न होगी । अगर तुम्हीं सत्य को खोज रहे हो और सत्य तुम्हें न खोज रहा हो, तो मिलने की कोई संभावना नहीं है। अगर सत्य भी आतुर न हो तुमसे मिल जाने को, तो सत्य फिर अपने को छिपाये चला जायेगा। तुम उघाड़े जाओगे, वह छिपाये जायेगा । फिर तो ऐसा हो जायेगा जैसे द्रौपदी का चीर बढ़ता गया। वह उघड़ने को राजी न थी। वह उस दरबार में नग्न होने को राजी न थी । नग्न करने की चेष्टा दरबारियों की थी, दुर्योधन
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