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कल्पकाआतम
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मूर्तिग्रहों की, ठोकरें खा-खाकर...
हो गये, छोड़कर चले गये। उन्होंने कहा, यह गौतम तो अब जबीने-रुसवा को रखकर अपनी
भ्रष्ट हो गया। इसने तो साधना का पथ ही छोड़ दिया। लेकिन हरम की चौखट पे सो गया हूं। उसी रात घटना घटी। उसी रात बुद्धत्व को बुद्ध उपलब्ध हुए। -अपने बदनाम मस्तक को अब तो तेरे भवन के सामने | उसी रात दीया जल गया। सीढ़ियों पर रखकर सो गया है। अब खोजता भी नहीं।
महावीर ने संकल्प से पाया; बुद्ध ने समर्पण से। गये दोनों जबीने-रुसवा को रखकर अपनी
संकल्प के रास्ते पर थे। इसलिए जैनों और बुद्धों में बड़ा हरम की चौखट पे सो गया है
बुनियादी विरोध बना रहा है; क्योंकि जैनों को लगता है, अगर जो काफिला इस तरफ से गुजरे
बुद्ध भी ठीक हैं तो फिर महावीर के ठीक होने में कठिनाई पड़ती वो एक ठोकर मुझे लगा दे
है। क्योंकि बुद्ध ने तो छोड़कर पाया, प्रयास छोड़कर पाया; 'जमील' मैं बीच रास्ते में
अप्रयास से पाया। खोज ही छोड़ दी, तब पाया। और फिर तो इसी भरोसे पे सो गया है।
बुद्ध ने इसे नियम बना दिया कि तम तब तक न पा सकोगे, जब समर्पण ऐसी घड़ी में घटता है, जब तुम बिलकुल हारकर बीच तक तुम्हारा प्रयास समाप्त न हो जाये। क्योंकि जिसे पाना है, रास्ते पर गिरकर सो गये कि अब ठीक है, तुझे उठाना हो उठा वह पाया ही हुआ है; प्रयास छोड़ो तो दिखाई पड़ जाये। प्रयास
। जिला देना! तुझे मारना हो मार देना! न की आपाधापी में दिखाई नहीं पड़ता। तुम दौड़ते हो, चिल्लाते अपनी अब कोई खोज है, न अपनी अब कोई आकांक्षा है! जो हो, भागते हो तो जो मौजूद है उससे चूक जाते हो। तेरी मर्जी-वही पूरी होने दे! तब समर्पण उठता है।
महावीर ने संकल्प से पाया। इसलिए बौद्धों को महावीर समर्पण करने की बात नहीं है, होने की दशा है। इसलिए तुम प्रीतिकर नहीं लगते। क्योंकि अगर महावीर ठीक हैं तो फिर बुद्ध यह तो पूछ ही नहीं सकते कि मुझमें समर्पण की शक्ति भी नहीं। का पाना कैसे हुआ? समर्पण का शक्ति से क्या लेना? शक्ति की भाषा ही समर्पण के मैं तुमसे कहता हूं: दोनों ठीक हैं। सत्य कंजूस नहीं। और विपरीत है। समर्पण तो असहाय, बेसहारा, पराजित...उससे परमात्मा का एक ही रास्ता नहीं। जितने लोग हैं, उतने रास्ते हैं। उठता है। अभी तुम शक्ति की भाषा में सोच रहे हो, इसलिए मैं हर आदमी वहीं से तो चलेगा, जहां है! तुम वहां से चलोगे जहां कहता हूं, थोड़ा संकल्प कर लो। महावीर के रास्ते पर थोड़ा तुम हो। दूसरा वहां से चलेगा जहां वह है। लेकिन सभी रास्ते चलो। पहंच गये तो महावीर हो जाओगे, न पहुंचे तो मीरा हो उस तक पहुंच जाते हैं। सत्य का अर्थ ही यह है कि सब द्वार उसी जाओगे। घबड़ाना क्या है? जो चलता है, मैं कहता हूं, पहुंच तक पहुंचाते हैं। असत्य का बंधा हुआ मार्ग होता है। सत्य का ही जाता है।
कोई बंधा हुआ मार्ग नहीं होता। क्योंकि असत्य की सीमा होती महावीर और बुद्ध दोनों एक ही रास्ते से चले। दोनों का रास्ता है; सत्य की कोई सीमा नहीं होती। अगर क्षुद्र के पास जाना हो संकल्प का रास्ता था। दोनों समसामयिक भी थे। थोड़े-से ही तो सभी रास्तों से न पहुंच सकोगे। अगर तुम्हें गंगा जाना है तो वर्ष का फासला था। महावीर बारह वर्षों तक जूझते रहे। सभी रास्तों से न पहुंच सकोगे। लेकिन अगर महासमुद्र की जूझकर उन्होंने पा लिया। बुद्ध छह वर्ष के बाद थक गये, हार | तरफ जाना है तो कहीं से भी चलो, पहुंच जाओगे। पूरब जाओ, गये। रास्ता वही था। इतने थक गये, इतने हार गये कि सब पश्चिम जाओ, उत्तर जाओ, दक्षिण जाओ, देर-अबेर सागर छोड़कर एक दिन वृक्ष के नीचे बैठ गये कि बस अब हो गया; न तुम्हें मिल ही जायेगा। क्योंकि सागर ने पृथ्वी को सब तरफ से संसार में कुछ पाने योग्य है, न आत्मा में कुछ पाने योग्य घेरा है। कोई रास्ते से करीब मिलेगा, किसी से थोड़ी दूर है—पाने योग्य ही कुछ नहीं तो पाऊंगा क्या!
मिलेगा। नाम शायद अलग होंगे, कहीं हिंद महासागर मिलेगा, उस सांझ उन्होंने सब छोड़ दिया। खोज भी छोड़ दी। उनके कहीं प्रशांत महासागर मिलेगा, कहीं अरब सागर पांच शिष्य, जो उनके साथ थे सदा, यह देखकर कि बुद्ध भ्रष्ट | मिलेगा-नाम ही अलग होंगे, सागर का स्वाद एक है।
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