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संकल्प की अंतिम निष्पत्ति: समर्पण ।।।
जब सारी वासनाएं उस एक वासना में तिरोहित हो जाती हैं, हिम्मत ही न आयेगी, यह साहस ही न जन्मगा। जैसे सभी नदियां समुद्र में गिर जाती हैं। ऐसे जब तुम्हारी सारी तो अड़चन कहां होगी? तुम भी खोजते हो, परमात्मा भी आकांक्षाएं एकजुट परमात्मा की तरफ प्रवाहित होती हैं, खोजता है-अड़चन कहां है? मिलन होता क्यों नहीं? अभीप्सा होती है, तब प्रार्थना पैदा होती है। फिर क्षणभर भी देर पहली बात-तुम लगते हो कि खोजते हो, खोजते नहीं। दांव नहीं लगती। और मैं तुमसे कहता हूं कि फिर अगर परवाना न भी | पर तुम कुछ भी नहीं लगाते। तुम परमात्मा को मुफ्त पाना चाहते जाये तो शमा उड़कर उसके पास आ जाती है।
हो। तुम क्षुद्र चीजों की तलाश में भी जीवन दांव पर लगा देते तुम्हीं नहीं खोज रहे, वह भी खोज रहा है।
हो। मजनू लैला को खोजता है, तो जैसा दांव पर लगा देता है; इजिप्त में पुराना वचन है कि अगर उसने न खोजा होता तो ऐसा तुमने परमात्मा की खोज में अपने को दांव पर लगाया? तुम्हारे मन में उसे खोजने की बात भी पैदा न होती। कहते हैं कि नहीं, तुम परमात्मा को भी अपने जीवन में थोड़ी जगह देते हो, जो उसकी खोज पर निकलता है, वह वही है, जिसे परमात्मा ने चौबीस घंटे में पांच मिनट पूजा-प्रार्थना कर लेते हो। वह भी खोज ही लिया। तुम प्यासे ही तब होते हो उसके लिए, जब जल्दी-जल्दी निपटा देते हो। वह भी एक औपचारिकता है, किन्हीं गहरे अर्थों में, कहीं किसी गहरी गहराई पर उसने तुम्हारे जिसको कर लेना है; वह भी तुम्हारी चालाकी, होशियारी का हृदय पर हाथ रख दिया। सभी तो उसे खोजने नहीं निकलते। हिसाब है कि पता नहीं, परमात्मा हो ही, तो यह कहने को तो कभी-कभी कोई दीवाना हो उठता है। जरूर उसने अपने रहेगा कि ध्यान रख, रोज पांच मिनट तेरी प्रार्थना करते थे, मधु-पात्र से कोई मदिरा तुम में उड़ेल दी। शायद तुम्हें भी पता | कितनी मालाएं सरकाईं, रोज गीता पढ़ते थे! कहीं मौत के बाद नहीं है, इतनी गहराई पर उड़ेली। शायद तुम्हारे प्राणों के प्राण, ऐसा हो ही कि परमात्मा हो, तो हमारे पास कुछ कहने को होगा, तुम्हारे केंद्र पर उड़ेली। वहां तो तुम कभी जाते नहीं, तुम तो कुछ बैंक-बैलेंस होगा, हम खाली हाथ न होंगे! न हुआ तो कुछ बाहर-बाहर घूमते रहते हो। तुम तो घर कभी आते नहीं। बिगड़ता नहीं है। पांच-दस मिनट खर्च भी हो गये तो क्या हर्ज
मेरे देखे भी ऐसा ही है। जो परमात्मा को चुनता है, वह इसकी है! हुआ तो काम आ जायेगी बात। खबर दे रहा है कि परमात्मा ने उसे चुन लिया।
तुम होशियार हो! तुम दो नावों पर सवार रहते हो। तुम्हारी तिब्बत में भी ऐसी एक लोकोक्ति है कि शिष्य थोड़े ही गुरु को प्रार्थना भी तुम्हारा गणित है। वहीं तो प्रार्थना मर जाती है। चुनता है, गुरु शिष्य को चुनता है। लगता यही है कि शिष्य ने क्योंकि प्रार्थना गणित हो ही नहीं सकती। उन्माद है प्रार्थना। चुना; क्योंकि शिष्य का अहंकार अभी 'मैं' के आसपास जीता पागलपन है प्रार्थना। दीवानगी है प्रार्थना। एक नशा है। गणित है। वह कहता है, मैं दीक्षित हो रहा हूं! वह कहता है, मैंने इस नहीं, हिसाब-किताब नहीं। गुरु को चुना! लेकिन जिन्होंने तिब्बत में यह लोकोक्ति बनाई। तुम्हारी प्रार्थना जब पागल हो जायेगी, तो पूरी हो जायेगी। जब होगी, वे जानते थे। तिब्बत में गुरु-शिष्य की परंपरा अति | परमात्मा तुम्हें सब तरफ से घेर लेगा, सुबह भी उसकी, सांझ भी प्राचीन है, अति शुद्ध है। वे ठीक जानते हैं। वे ठीक कह रहे हैं उसकी, भर दोपहरी भी उसकी, तुम उठोगे-बैठोगे तो भी उसमें कि गुरु शिष्य को चुनता है। कहता नहीं, क्योंकि कहने से भी हो ही लीन रहोगे; बाजार भी जाओगे तो ऊपर-ऊपर बाजार होगा, सकता है, शिष्य छिटक जाये। कहने से भी हो सकता है, शिष्य भीतर-भीतर उसकी याद होगी; दुकान पर भी बैठोगे तो में प्रतिरोध पैदा हो जाये। कहने से भी हो सकता है, उसके ऊपर-ऊपर से ग्राहक को देखोगे, भीतर-भीतर उसी का दर्शन अहंकार को चोट लग जाये, घाव बन जाये और जो पास आता | होगा-जब तुम्हारा चौबीस घंटे का जीवन अहर्निश; था, दूर निकल जाये। गुरु कुछ कहता भी नहीं। वह यह भी भीतर-बाहर आती श्वास-प्रश्वास की भांति उस पर समर्पित स्वीकार कर लेता है कि तुमने मुझे चुना। लेकिन मैं भी यही होगा तो मिलन हो जायेगा। तुमसे कहता हूं कि जब तक गुरु ने तुम्हें नहीं चुना है, तुममें चुनने तो पहली तो बात, तुम बातें करते हो मिलने की, दांव पर कुछ का सवाल ही न उठेगा, तुम्हें यह भाव ही पैदा न होगा, यह नहीं लगाते। और यह दांव कुछ ऐसा है कि पूरा ही पूरा
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